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अधुम आग्वामः
३८९ मिम्पातमःपटलभवनकारणाय स्वर्गापवर्गपुरमार्गमियोधनाय । तत्तत्त्वभावममना: प्रणमामि नित्यं त्रैलोक्यमङ्गलकराय जिनागमाय ।। ४१॥ (इति ज्ञानभक्तिः) ज्ञानं दुर्भगवेहमण्डनमिव स्यारजस्य खेदावह पत्त साधु म तफलभियगयं सम्पश्वरमाङ्करः । कामं देव यन्तरेण शिफलास्तास्तास्तपोभमयस्तस्मै वच्चरिताय संयमवमध्यानादिधाम्ने नमः ॥ ४२ 11 चिन्तामणिरीप्सितेष वसतिः सोकप्यसौभाग्ययोः श्रीपाणिपती बलारोग्यागमे संगमः। यत्पूर्वश्चरितं समाधिमिषिभिर्मोक्षाय पञ्चात्मक तच्चारित्रमहं नमामि विविध स्वर्गापयप्तिये ।। ४३ ।। हस्ते स्वर्गसुखान्यक्तिभवास्ताइनसिश्चियो देवाः पावतले लठन्ति फलति द्यौः कामितं सर्वतः । कल्याणोत्सवसंपदः पुनरिमास्तस्यावतारालपे प्रागेवावतरन्ति यस्य चरितर्जरः पवित्रं मनः॥४४ ।।
(इति चारित्रभक्तिः) पोषोऽवधिः श्रुतमशेषनिरूपितार्यमन्तरीहिःकरणमा समना मतिस्ते । इत्यं स्वतः सकलवस्तुविवेकबुदे का क्याग्जिनेन्द्र भवसः परतो व्यपेक्षा || ४५ ॥
आगम में कहे हुए तत्वों की भावना से युक्त चित्तवाला मैं ऐसे जिनागम के लिए सदा नमस्कार करता हूँ, जो मिथ्यात्वरूपी अन्धकार समूह को नष्ट करने में कारण है, जो स्वर्ग व मोक्षरूपी नगर के मामं का ज्ञान करानेवाला है एवं जो तीन लोक का कल्याण करनेवाला है ।। ४१ ।।
चारित्र-भक्ति जिस चारित्र के बिना विद्वान का ज्ञान उस प्रकार उसके लिए खेदजनक होता है जिस प्रकार भाग्यहीन मानव का शरीर पर आभूषण धारण करना खेदजनक होता है और जिसके विना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्नाकुर सम्यग्ज्ञानरूपी फल सम्पत्ति को भलो प्रकार धारण नहीं करता एवं जिसके विना समस्त तपोभूमियां अत्यन्त निष्फल हुई, हे भगवन् ! आपके उस सम्यक्चारित्र के लिए नमस्कार हो, जो कि संयम, इन्द्रिय-दमन व धर्मध्यान और शुक्लध्यान-आदि का स्थान है ॥ ४२ 11 ऐसे उस अनेक प्रकार के सम्यक्चारित्र के लिए में स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता है, जो अभिलषित वस्तुओं के प्रदान करने के लिए चिन्तामणि है। जो सौन्दर्य च उत्तम भाग्य का निवास है, जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ पाणि-ग्रहण करने में कालाणबन्धन है। जो उत्तमकुल, शक्ति व निरोगता का संगमस्थान है। जिसे धर्मध्यान की निधिबाले पूर्वचार्यो' ने मोक्ष को प्राप्ति के लिए धारण किया था और जो सामायिक व छेदोपस्थापना-आदि के भेद से पांच प्रकार का है ।। ४३॥
जिनेन्द्र के चारित्र-धारण से पवित्र मनवाले मानव के लिए स्वर्ग-सुख हस्त-गत हो जाते हैं । चक्रवर्ती को विभूतियाँ विना विचारे प्राप्त होनेवाली होती हैं, । देवतालोग उसके चरणतल पर लोटते हैं, समस्त दिशाएं उसके मनोरथ को पूर्ण करतो हैं और उस चरित्रवान् की जन्मभूमि में जन्म से पूर्व ही ये गर्भकल्याणक-आदि उत्सव सम्पत्तियां प्राप्त हो जाती है ।। ४४ ॥
अर्हन्त-भक्ति हे जिनेन्द्र ! आपको जन्म से ही अन्तरङ्ग (मन ) व बहिरङ्ग ( स्पर्शनादि ) इन्द्रियों से होनेवाला मतिज्ञान, समस्त जीवादि तत्त्वों को जाननेवाला श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। इस प्रकार स्वतः ही १. छरिनेत्रम्जो क्लीवे समूहे पटलं न मा। २. ज्ञान । ३. चारित्रेण विना । ४. ककणं । ५. हे जिन तय वर्तते ।
६. अन्यतः । ७.बाञ्छा ।