Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ते कुबन्तु तपासि दुर्घरधियो ज्ञानानि संचिन्वता । वित्तं था वितरन्तु वेव तदपि प्रायो न जन्मच्चियः । एषा येषु न विद्यते तव वचःश्रवावधानोद्धरा वुष्कर्माङ्करकुजवष्यवहनयोतावाता अधिः ॥ ३७ ।। संसाराम्बुधिसेतुबन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मोक्न प्रोल्लासामृतवारिवाखिलवलोक्यचिन्तामणिम् । कल्याणाम्बुजवण्डसंभवसरः सम्यक्रवरत्नं कृती यो पत्ते हवि तस्य नाथ मुलभाः स्वर्गापवधियः ।। ३८ ॥
(इति दर्शनभक्तिः) अत्यल्पापतिरमजा मतिरिय दोषोऽवधिः सावधिः साश्चर्यः स्यचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनः पर्यमः । दुष्प्रापं पुनरद्य फेवलमिदं ज्योतिः कमागोचरं माहात्म्यं निलिलागे तु मुलभै फि वर्णयामः श्रुते ।। ३९ ।। यहवः शिरसा तं गणधरः कर्षावतंसीकृतं न्यस्तं चेतसि योगिभिनुपवररामातसारं पुनः ।
हस्ते वृष्टिपणे मुखे च मिहित विद्यापराधीश्वरस्तरस्यावावसरोयह मम मनोहंसस्य भूयान्मुदे ।। ४० ॥ सम्यग्दर्शन को चित्त में धारण करता हूँ। जिनेन्द्रों ने जीवादि सात तत्वों में इस विशुद्ध मन की उत्कृष्ट मचि को सम्यग्दर्शन कहा है, जिसके निसर्गज व अधिगमज दो भेद हैं एवं औपशमिक शायिक व क्षायोपमिक ये तोन भेद है तथा आज्ञा व मार्ग-आदि दशमेद हैं। जो प्रथम, संवेग, अनुकम्पा व आस्तिक्य इन चारों गुणों से पहचाना जाता है। जो निःशक्षित-जादि आठ अङ्गोंवाला है और जो तीन प्रकार की मूहता से रहित है ॥३६।। हे जिनेन्द्र ! जिनकी आपके वचनों में माढ़ मनोयोग से उत्कट श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो कि ( रुचि) पाप कर्मरूपी अङ्कुरों के लतागृहों को भस्म करने के लिए वजाग्नि की कान्तिसरीखो शुभ्र है, वे चञ्चल बुद्धिवाले चाहे किसाही तप कारबाहे कितना ही मधुर ३. संचय करें अथवा धन वितरण करें, फिर भी प्रायः जन्म-परम्परा का छेदन करनेवाले नहीं हो सकते ।। ३७ ।।
हे प्रभो! जो पुण्यवान् पुरुष ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को अपने हृदय में धारण कर ता है, उसे स्वर्ग और मुक्तिरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति सुलभ है, जो कि संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए पुल के बन्धन-सरीखा है। जो क्रम से उत्पन्न होनेवाले लक्ष्मी के उपवन को विकसित करने के लिए अमृत भरे मेघोंसरीखा है और जो समस्त तीन लोक के प्राणियों को चिन्तामणि-सा हैं एवं जो कल्याणरूपी कमल-समूह की उत्पत्ति के लिए तड़ाग-सरीखा है ॥ ३८॥
सम्यग्ज्ञान की भक्ति इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान स्वल्प व्यापारवाला है, अर्थात् बहुत थोड़े पदार्थों को विषय करता है। अवधिज्ञान भी मर्यादा-साहित है, अर्थान्-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेवार केवल रूपी पदार्थों को हो विषय करने के कारण सीमित है। मनः पर्यय का भी विषय थोड़ा है और वह भी किसी विशिष्ट योगी में ही उत्पन्न होता है, अतः आश्चर्यजनक है। केवलज्ञान महान् है, किन्तु उसकी प्राप्ति इस पंचमकाल में दुर्लभ है। यह तो पूज्य महापुरुषों के कथानकों का विषय रह गया है। एक श्रुतज्ञान हो ऐसा है, जो समस्त पदार्थों को विषय करता है और मुलभ भी है, उसको हम क्या प्रशंसा करें ।। ३९ ॥ ऐसा स्याद्वाद ( अनेकान्त ) श्रुतरूपी कमल मेरे मनरूपी हंस को प्रसन्नता के लिए हो, जिसे जिनेन्द्रदेव ने शिर पर धारण किया था, गणघरों द्वारा जो कर्णाभूषण किया गया, जो महामुनियों द्वारा अपने चित्त में स्थापित किया गमा और राजाओं में श्रेष्टों के द्वारा जिसका सार सूंघा गया है एवं विद्याधरों के स्वामियों ने जिसे अपने हाथों पर स्थापित किया एवं नेत्र गोचर किया तथा मुख में स्थापित किया । ४० ।। १. वनाग्निः । २. 'अल्पदध्या' टि० ख०, गझिकाकारस्तु 'अत्यल्पायति स्वल्पव्यापारा' इत्याई । ३. समर्यादः ।