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अष्टम आदवासः
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* यत्सकललोकालोकावलोकन प्रतिवन्ध कारवकारविध्वंसनम् अनवद्यविद्या मत्वा कि नोनियान मे बिनी घरम्, अशेषसत्त्वोत्सवानन्दचध्वोदयम् अखिलन्नत तुप्ति समितिलता रामपुष्पाक रसमयम्”, अनस्पफलम दायितपः कल्पम मिममयोपशमसौमनस्यवृत्तियं प्रधानं रनुष्ठीयमानमुशन्ति सद्धीषमाः परमपदप्राप्तेः प्रथमभिव सोपानम्, तस्य तमात्मनः " सर्वक्रियोपशमातिशयावसामस्य सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरः सरस्य भगवतः सम्यक्चारित्ररमस्याष्टयोमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
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*मं योगिनरेन्द्रस्य कर्मरियाजन शर्मा सर्वसस्थानां धर्मधी तमाभये 11 ३४ || जिन सिद्ध सुरिवेशका द्धानवशेषवृत्तानाम् | कृत्वाष्टतयोपिष्ट विधामि ततः स्तवं युक्तया ।। ३५ ।। सत्येषु प्रणयः परोऽस्य मनसः षज्ञानमुक्तं जिनै" रेतद्वित्रिदशप्रमेवविषयं वयक्तं चतुभिर्गुणः । भुतमिवं मृरपोकं त्रिमित्तं देव वयामि संसृतिलतोल्ला सावसानोरसवम् ॥ ३६ ॥
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सम्यक चारित्र पूजा
जो समस्त लोक और अलोक के देखने व जानने में रुकावट डालनेवाले अज्ञानरूपी अन्धकार को विध्वंस करनेवाला है, जो केवलज्ञानरूपी गङ्गा का उत्पादक कारण हिमाचल है । अर्थात् — जैसे हिमाचल से गङ्गा निकलती है वैसे ही चारित्र की आराधना से केवलज्ञान प्रकट होता है। जो समस्त प्राणियों के उत्सवों ( आनन्दों) को वृद्धि के लिए चन्द्र के उदय-सा है। अर्थात् - जिस प्रकार चन्द्र के उदय से समुद्र वृद्धिगत होता है उसी प्रकार चारित्र की आराधना से समस्त प्राणियों के आनन्द की वृद्धि होती है । जो समस्त व्रत, गुप्त व समितिरूपी लताओं के बगीचे के लिए वसन्त ऋतु के समान है । जो प्रचुर फलदायक तपरूपी कल्पवृक्ष की उत्पत्ति भूमि है। जो गर्व का अभाव, कषायों का क्षण, विशुद्ध चित्तवृत्ति व धीरता की प्रमुखतावाले महात्माओं द्वारा धारण किया जाता है । प्रशस्त वृद्धिरूपी धनवाले महात्मा ऐसे चारित्र को मोक्षपद की प्राप्ति का प्रथम सोपान - ( सीढ़ी) सरीखा कहते हैं । जो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात चारित्र के भेद से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्याचार के भेद से पांच प्रकार का है । और जिसके अन्त में मन, वचन व काय के व्यापार का क्षय वर्तमान है, उस समस्त कल्याणों के कर्ता और पंचपरमेष्ठी की प्रमुखतावाले भगवान् सम्यक् चारित्र को आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ ।
धर्म में वृद्धि रखनेवाला में ऐसे सम्यक् चारित्र का आश्रय ग्रहण करता है, जो कि कर्मही त्रुओं पर विजय प्राप्त करने में महामुनिरूपी राजा का धनुष है एवं जो समस्त प्राणियों के लिए सुखदायक है ।। ३४ ।।
इस प्रकार अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यञ्चारित्रको अष्ट द्रव्य से पूजन करके में इनका युक्तिपूर्वक स्तवन करता हूँ ।। ३५ ।।
सम्यग्दर्शन की भक्ति
हे जिनेन्द्र ! में संसाररूपी लता की वृद्धि को समाप्त करने का उत्सचवाले व तीन लोक द्वारा पूजित
१. केवलज्ञानं । २. कारणं । ३. हिमाचलं पोधनाः उशन्ति कथयन्त । ४. वसन्तं । ५. गवं । ६. चतयाऽत्मनः सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिमुच्य साम्पराय यथाख्पातचारित्रभेदेन । ज्ञानदर्शनवारितपोवीर्याचारभेदेन |
७. मनोवचः काय व्यापारक्षयपर्यन्तस्य । *. 'धर्म' इति घ० । ८. महामुनि । ९. निसर्गाभिगम, उपशम-क्षार्थिकमिश्र, आज्ञामार्गात्रि १० उपशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिषय ।