Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यथास्तिलकचम्पूकाव्ये प्राप्तेऽर्थे येम माधन्ति नावाप्ते स्पृहयालवः । लोकदपाधितां श्रोणात एव परमेश्वराः ॥१७०।। *चित्तस्य वित्तचिन्तायो म फर्क परमेमसः । अस्थाने क्लिश्यमानस्य न हि क्लेशात्परं फलम् ॥१७॥ अन्तर्बहिणते सङ्ग निःसङ्ग यस्य मानसम् । सोऽगण्यपुण्यसंपन्नः सर्वत्र सुसमानुते ॥१७२॥ माहासङ्गरते सि कुतविधत्तविशुद्ध सा । सतुषे हि बहिषान्ये बुलंभान्तपिशुद्धता ॥१७३।। सरपाणिनियोगेन योऽर्थसंग्रहासत्परः । लब्धेषु स परं कन्धः सहामुत्र धनं नयन् ॥१७४।। कृतप्रमाणाल्लोभेन धनाषिकसंग्रहः । पञ्चमाणुनतज्यान करोति गृहमे पिनाम् ॥१७५।। यस्य द्वन्द्वयेऽप्यस्मिनिस्गृहं देहिनो मनः । स्वर्गापवर्गलमीणो मणात्पक्षे स दक्षते ॥१७६|| प्रत्यर्थमर्यकाक्षायामवश्यं नायते नृणाम् । अघसंचितं चेतः संसारावतंगतंगम् ॥१७७।। भानामत्र परिणाग हमोपासना
घन का उपयोग नहीं करता, वह धनाढ्य होकर के भो दरिद्र है और मनुष्य होकर के भी मनुष्यों में नीच है ॥ १६९ ।। प्राप्त हुए धन में अभिमान न करने वाले व अप्राप्त बन की वाञ्छा न करने वाले मानव हो दोनों लोकों में प्राप्त होने वाली लक्ष्मियों के उस्कृष्ट स्वामी होते हैं ।। १७० ॥ जब मानव का चित्त धन-प्राप्ति के लिए चिन्तित होता है तब उसे पापवन्ध के सिवाय दूसरा फल प्राप्त नहीं होता, क्योंकि निस्सन्देह अयोग्य स्थान में क्लेशित होने वाले व्यक्ति को कष्ट के सिवा दूसरा फल प्राप्त नहीं होता ।। १७१ ।। जिसका विशुद्ध मन वाह्य व आभ्यन्तर परिमहू में अनासक्त या मूरिहित है, वह अगण्य ( अनगिनती ) पुण्य-राशि से युक्त हुआ सर्वत्र ( इस लोक व परलोक में ) सुख प्राप्त करता है ।। १७२ ॥ जिस प्रकार निस्सन्देह छिलका-सहित वाहिरो धान्य में भीतरी निर्मलता दुर्लभ होती है उसो प्रकार वाह्य परिग्रह में आसक्त हुए मानब में चित्त को विशुद्धि किस प्रकार हो सकती है ? ॥ १७३ ।। जो सत्पात्रों के लिए दान देकर धन के संचय करने में तत्पर है, वह उस धन को अपने साथ परलोक में ले जाता है अतः वह लोभियों में महा लोभी है।
भावार्थ-प्रस्तुत आचार्यश्री ने अपने 'नीतिवाक्यामृत' के धर्म समुद्देश में भी लिखा है-'स खलु लुब्धों यः सत्सु विनियोमादात्मना सह जन्मान्तरेषु नयत्यर्थम्' || १८ ।। अर्थात् --जो मनुष्य सज्जनों के लिए दान देकर अपने साथ परलोक में धन ले जाता है, वही निश्चय से सच्चा लोभी है, अभिप्राय यह है, कि घन का लोभी लोभी नहीं है, किन्तु जो उदार है, उसे सच्चा लोभी कहा गया है, क्योंकि पात्रदान के प्रभाव से उसकी सम्पत्ति अक्षय होकर उसे जन्मान्तर में मिल जाती है ॥१७४॥
लोभ में जाकर परिमाण किये हुए धन से अधिक धन का संचय करने वाला मानव श्रावकों के परिग्रह परिमाण नाम के अणुवत की हानि करता है ।। १७५ ।। जिम मानव का चित्त अन्तरङ्ग और वहिरङ्ग परिग्रहों में निस्पृह ( लालसा-शून्य ) है, वह क्षणभर में स्वर्गश्री व मुक्तियों के पक्ष ( स्वीकार करने ) में दक्ष ( चतुर) होता है ।। १७६ ।। धन की अत्यधिक तृष्णा होने पर मनुष्यों का मन अवश्य ही पाप-समूह का संचय करता हुआ उन्हें संसाररूपी भवर के गड्ढे में गिरा देता है ।। १७७ ।।
अब परिग्रह की तृष्णा वाली कथा श्रवण कीजिए
*. वित्तार्थचित्तचिन्तार्या न फलं परमेनसः । अतीवोद्योगिनोस्याने न हि क्लेशात परं फलम् ।। ६३ ॥ -धर्मरला.
पृ० ९६ । १. धन । २. पापात्र भिन्नं फलं न, किन्तु पापमेव भवति । ३. दानयोगेन । ४. 'स बल लन्यो यः सत्सु विनियोगादात्मना मह जन्मान्तरेषु नियत्ययम् ॥ १८ ॥-नीतिवाक्यामृत, धर्म, नूत्र १८ पृ० २६. । ५. हानि । ६. परिग्रहवये । ७. दक्षः स्यात् ।