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अष्टम आश्वासः
३७७ शातातपावि-संसृष्टे भूरितोये जलाधाये' | अवगाह्याचरेत्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भप्रेत ।। ७ ।। पावनानुकटिग्रीवाशिरःपर्यन्तसंत्रयम् । स्नानं पञ्चविध क्षेयं यथादोष शरीरिणाम् ॥ ८॥ ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भकर्मणः । यता सता भवेत्स्नानमन्त्यमन्यस्य तद्वयम् ॥ ९॥ *सरिम्भवितम्भस्य ब्रह्ममिलस्य देहिनः । अविधाय बहिः शुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ॥ १० ॥ अद्भिः शुद्धि निराकुर्वमन्त्रमात्रपरायणः । स मन्त्रः शुद्धिभाग्नूनं भुक्त्वा हत्या विवल्य च ॥ ११ ॥ मरस्नयेष्टकया पापि भस्मना गोमयेन च । शौचं तावत्प्रकुर्वीत यावन्निर्मलता" भषत ॥ १२॥ बहिविहत्य संप्राप्तो नानाचाथ गहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं स १"प्रोशित्तमाचरेत् ।। १३ 11
आप्लुतः संप्लुतस्वान्तः शुचिवासीविभूषितः । १४मौनसंयमसंपन्नः कुर्याहवाचनाविषिम् ।। १४ 11 दुर्जन ( कापालिक, रजस्वला व चापडालादि ) से छु जाने पर ही स्नान करना चाहिए। यदि मुनि को दुर्जन का स्पर्श नहीं हुआ है, तो उसका स्नान निन्ध है ॥ ६ ।। प्रचुर जलराशिवाले व कहती हुई वायु से स्पर्श कियेए और सूर्य की किरणों से सर्वरूप से स्पर्श किया तालाब-आदि जलाशय में अवगाहन करके स्नान करना उचित है, किन्तु जिस जलाशय व कुआ-आदि का पानी धूप व वायु से स्पर्श किया हुमा नहीं है, उसे छानकर हो स्नान में प्रयोग करना चाहिए ॥ ७॥ स्नान पाँच प्रकार का जानना चाहिए। पैरों तक, घुटनों तक, कमर पर्यन्त, गर्दन तक और सिर तक। इनमें से मनुष्यों को उनके दोष के अनुसार स्नान करना चाहिए ॥ ८॥ जो ब्रह्मचारी है और सब प्रकार के आरम्भों ( कृषि व व्यापारादि ) का त्यागो है, उसे इनमें से कोई भी स्नान कर लेना चाहिए, किन्तु दूसरे गृहस्थों को तो फण्ठ पर्यन्त या मस्तक पर्यन्त स्नान करना चाहिए। अर्थात्-आरम्भ करने पर कब-स्नान और ब्रह्मचर्य के भङ्ग होने पर मस्तक-पर्यन्त स्नान करना चाहिए ॥५॥ जो समस्त प्रकार के आरम्भों (कृषि व व्यापार-आदि ) में प्रवृत्त है और ब्रह्मचर्य के पालन में कुटिल है, उसे कण्ठ पर्यन्त व मस्तक पर्यन्त स्नान द्वारा बाह्यद्धि किये बिना देवोपासना का अधिकार नहीं है ।। १० ।।
__ स्नान-हीन साधु की शुद्धिजल-स्नान से शुद्धि को निराकरण करता हुआ (जल-स्नान न करनेवाला) साधु केवल मन्त्र-मात्र के जप में तत्पर होता है। क्योंकि वह आहार, विहार व मल-मूत्रादि क्षेपण व दहन करके उनसे उत्पन्न हुए दोषों के निवारण करने के लिए निस्सन्देह मन्त्रों द्वारा शुद्ध हो जाता है, उसे जल-स्नान द्वारा वाह्य शुद्धि की आवश्यक्ता नहीं रहती ॥ ११ ॥ अत: प्रासुक व प्रशस्त मिट्टी से अथवा ईट के चूर्ण से अथवा राख या गोवर से तब तक हस्तादि को शुद्धि करनी चाहिए, जब तक उनमें निर्मलता ( शुद्धि ) न आजाय ॥ १२॥ वाहर से घूम करके
मुह पर आए हुए मानव को आचमन (कुल्ला) किये बिना गृह में प्रवेश नहीं करना चाहिए । एवं अन्य स्थान से • आई हुई समस्त वस्तुओं को जल-सिञ्चन से पवित्र करके व्यवहार में लानी चाहिए ।। १३ ।। गृही धावक को *. 'संस्पृष्टे' इति मु० व के० 1 १. तड़ागादो। २-३. क्रमेण श्रीवा मिरः, कष्ट शिरो वा स्नानं गृहस्थस्य, आरंभे
सति कण्ठस्नानं, ब्रह्मभड़े सति मस्तगास्नानं । *. 'मरम्भप्रवृत्तस्य' इति । ४. आरंभे प्रवृत्तस्य । ५. 'वक्रस्य' हि० स०, पञ्जिकायां तु 'ब्रह्मचर्य-मन्दस्य' इति प्रोक्तं । ६. दहनं कृत्वा । * "विशुद्धप च' इति । ७. 'मृत्स्ना अजन्तुका भूमिः' पं०, 'प्रशस्तमृत्तिकन्या' टिक प. च० । ८. गन्धलेपहानिः । ९. आचमेदोतहस्ताधिः पौते वारिणि सर्वदा । चतुराहारभुती च कृतायामुदकं पिवेत् ॥१॥ १०. सर्व वस्तु । ११. अम्युक्षित्वा । १२. स्नातः । १३. संस्कृतचित्तः अथवा अश्यग्रचित्तः । १४. मौमसंयमसम्पन्नैर्देवोपास्तिविधीयताम् । बन्सपावनशद्धास्यौतवस्त्रावित्रित: 11९२६॥-प्रबोधसार ।
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