Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 417
________________ अष्टम आश्वासः ३८१ कावटविकटाकारस्य रस्नत्रयपुरःसरस्य भगवतोऽहत्परमेष्ठिनोऽष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा । अपि च ।। नरोरगापुराम्भोजविरोचनश्चिथियम् । आरोग्याय जिनाषोशं करोभ्यर्चनगरोघरम् ॥ २७ ॥ 'सहचरसमीचीनचा वात्रयविचारगोधरोचितहिताहितप्रविभागस्य अत एप परनिरपेक्षतया स्वयंभुवः सलि. लान्मुक्ताफलमिव उपसादिव काञ्चनम स्मादेवात्मनः कारणविशेषोप सर्पणवशावाविर्भूतमपिलमबिलयलयात्मस्वभाषमसममसहायमक्रममवीरितान्य समिधिस्यवधानमनवधिमयत्नसाध्यमवसितातिशयसम्मानमात्मस्वरूपकनिनन्यनमन्तःप्र . काशम'ध्यासितवतमनन्सवर्णनवेशयविशेषसाक्षात्कृतसकलवस्तुसर्थस्यमम वसानमुखलोप्ससमपर्यन्तबोमचाध - सूक्ष्माषभासमसदशाभिनिवेशावगाहमलघुगुरख्यपदेशमपातबाधापराकारसंक्रममप्तिविशुवस्वभावसया निवृत्ताशेषशारीरबछिया की वृद्धि के लिए कामधन हैं। जिन नामरूपी मान्य का प्रभावमल विशेष को संगति को नष्ट करने में कारण है। जो सौभाग्यरूपी सुगन्धि को प्राप्ति में कल्पवृक्ष के पुष्पों का गुच्छा-सरीखे हैं। जो अनोखे सोन्दर्य की उत्पत्तिरूपी मणि-जड़ित पुतली की रचना के लिए स्वर्णकार-जैसे हैं एवं जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं। मैं जन्म जरा-मरणरूपी रोग को निवृत्ति के लिए मनुष्य, नागासुर व देवरूपी कमलों के विकसित करने के लिए सूर्य को कान्ति को धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेव की पूजा करता हूँ ।। २७॥ सिद्ध-पूजा मैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ। जिनका हिताहित का प्रकृष्ट शान पूर्वजन्म से आये हुए मलि, श्रुत व अवविज्ञान के विचार के विषय के योग्य है, इसीलिए गुरु-आदि दूसरे की अपेक्षा न करने के कारण जो स्वयंभू हैं। जिसने ऐसे केवलज्ञान से अधिष्ठित ऐसे परमात्मा का प्राप्त किया है, जो कि { केवलज्ञान) इसी पूर्व संसारी आत्मा से ही घातिया कर्मों को क्षय करनेवाली कारण सामग्री ( द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव-आदि एवं सम्यग्दर्शन-आदि) के सन्निधान से उस प्रकार उत्पन्न हुआ है, जिसप्रकार कारणसामग्री ( स्वाति नक्षत्र का उदय-आदि) के सन्निधान से जल से [ सीप में] मोती उत्पन्न होता है और जिसप्रकार कारणसामनी ( अग्निपुट-पाक व छेदन, भेदन-आदि ) के सन्निधान से सुवर्णपापाण से सुवर्ण उत्पन्न होता है। जिसको उत्पत्ति समस्त मलों ( धातिया कम व उनके उदय से होनेवाले अज्ञानादि दोषों ) के क्षय से हुई है, जो अनोखा और चक्षुरादि इन्द्रियों की सहायता से शून्य है। जो क्रम-रहित है, अर्थात्-समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाला है । जिसने दूसरे पदार्थों को निकटता व दूरी तिरस्कृत को है। जो सोमा को उल्लंघन करने वाला व इन्द्रियों के व्यापार-आदि प्रयत्नों के बिना उत्पन्न होनेवाला एनं जो अतिशय की सीमा का अन्त करने वाला है और जिसकी उत्पत्ति में केवल विशुद्ध आत्मस्वरूप ही कारण है। जिसमें (परमात्मा में ) अनन्त दर्शन की विशेष निर्मलता के कारण समस्त पदार्थों का सार प्रत्यक्ष किया गया है। जो अनन्त सुख का झरना है। जो अनन्तवीर्य-शाली है। जिसमें चक्षुरिन्द्रिय से अगोचर सूक्ष्मत्व प्रति जोबी गुण की प्रतीति है। जिसमें अनोखे परमावगाढ़ सम्यक्त्व के साथ अवगाह गुण वर्तमान है । जो अगुरु लघु गुण १. 'जड़िया-स्वर्पकार' टि. स०, परिखकायां तु "विकटाकार: दंकः' इति प्रोक्तम् । २. विरोचनो रविः । ३. पूर्वजन्मागत । ४ नात्रियं मतिः श्रुतमवधिश्च । ५. पूर्वसंसारिणः एव । ६. प्रत्र्यक्षेत्रकालभाषादि, पर उबसमो विसोहो वेसण पाजगकरणलद्धीए चत्तारि विमामण्णा करणे पुण होई सम्मत्तं ॥१॥ ७. आगमनं । ८. सामीप्य । ९. केवलज्ञानं। १०. प्राप्तवन्त । ११. निर्मलता । १२-१३. ईदृशं परमात्मानं । १४. अभिनिवेशः सम्यक्त्वं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565