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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अहंन्न 'तनुमध्ये वक्षिणतो "गणधरस्सया पश्चात् । 'धृतगीः सास्तवतु च पुरोऽपि गवगमवृत्तानि ॥२४॥ मर्ने फलके सिचये शिलातले सकते क्षिती ज्योम्नि । हवये चैते स्थाप्याः समयसमाचारवं विभिनित्यम् ।।२५।। रस्तत्रयपुरस्काराः पञ्चापि परमेष्ठिनः । भव्यरलाकरानन्दं कुर्वन्तु भूवमेधवः १६]]
ॐ निखिलभुवनपत्ति विहितनिरतिशयसपर्यापरम्परस्य परानपेक्षापयर्यायप्रवृत्तसमस्ताविलोकलोचमकेवल ज्ञानसाम्राज्यलायनपञ्चमहाकल्याणाष्टमहाप्रालिहायंचस्त्रिशतिशयविशेषविराजितस्य पौडयालक्षणसहस्राश्रितविग्यचेहमाहात्म्यस्य द्वादशगणप्रमुखमहामुनिमनःप्रणिधान निघीयमानपरमेश्वरपरमसघशाविनामसहलस्य विरहितारिरजोरताकहकभावस्य' ममवसरणसरोवतीणजगत्त्रयपुण्डरीकक्षहमार्तण्डमण्डलस्य दुष्पाराजवजवीभावमलनिधिनिमज्जज्जन्तुजातहस्तावलम्बपरमागमस्य भक्तिभरविनतविष्टपत्रयोपालमौलिमणिप्रभा११मोपनमोविजम्भमाणवरणनखनक्षत्र निकुसम्बस्य सरस्वतीवरप्रसाचिन्तामणेश्मीलतानिकेत प्रकल्पामोकुलस्य कति पोतिकाप्रवर्धनकामधेनोः, Yोधिपरिचयखलौकारकारणाभियानपानमन्त्रप्रभावस्य सौभाग्यसौरभसंपादनपारिजालप्रसस्तबफस्य तौरूप्योरपतिमणि मकरि
पूजा-विधि के वेत्ताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को पत्र व पुष्पादि के मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को क्रम से भोजपत्र पर, लकड़ी के पटिये पर, वस्त्र पर, शिलातल पर, वालुकामय प्रदेश पर, पृथ्वी पर, आकाश में और हृदय में स्थापित करना चाहिए ॥२४-२५।। सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय से पूजनीय और तोन लोक के लिए चन्द्रमा सरीखे पांचों परमेष्ठी भव्य जीवरूपी समुद्र को प्रमुदित करें ॥ २६ ।।
अइन्त पूजा में ऐसे भगवान अहंन्त परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जिनकी विशेष माहात्म्यवाली पूजा परम्परा समस्त लोक के स्वामियों ( इन्द्र-आदि ) द्वारा की गई है। जो दूसरे ( चक्षुरादि इन्द्रिय ) की अपेक्षा से रहित परमात्म-पर्याय से उत्पन्न हुए समस्त पदार्थों के अवलोकनरूप केवलदर्शन व केवलज्ञानरूप साम्राज्य के चिह्नरूप पंचकल्याणकों, आठ प्रातिहार्यों एवं चौंतोस अतिशयों से विशेषरूप से सुशोभित हैं। जिनके दिव्य परमौदारिक पारीर का प्रभाव एक हजार आठ शुभ लक्षणों से युक्त है। जिनके परमेश्वर व परमसर्वश-आदि एकहजार नाम बारह गण ( शिक्षक, बादो व विक्रिद्धि-आदि ) के मुनियों में प्रमुख महामुनियों (गणधरों) के मन में चित्त को एकाग्रता द्वारा आरोपण किये जा रहे हैं। जो मोहनीय, जानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय इन पातिया कर्मरूप इन्द्रजाल से रहित है । जो समवसरणरूपी सरोवर में आये हुए तीनलोक के प्राणीरूप कमल-समूह को विकसित करने के लिए सूर्य-मण्डल-सरीखे हैं। जिनका उत्कृष्ट द्वादशाङ्ग शास्त्र दुःख से भी पार करने के लिए अशक्य संसाररूप समुद्र में डूबे हुए प्राणी-समूह के लिए हस्तावलम्बन-सरीखा है। जिनके चरणों के नखरूपी नक्षत्र-ममह, भक्ति के भार से नम्रीभूत हाए तोनलोक के स्वामियों ( इन्द्र आदि) के मुकुटों में जड़े हुए मणियों को कास्ति के विस्तार-रूप आकाश में विस्तृत हो रहा है। जो सरस्वती को वर का प्रसाद देने के लिए चिन्तामणि हैं। जो लक्ष्मीरूपी लता के आश्रय के लिए कल्पवृक्ष-से हैं | जो कीतिरूपी १. सिद्धः । २. गाचार्यः। ३. उपाध्यायः । ५. सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्राणि । ५. वस्त्रे। ६. पुलिने । ७. परस्य
अनपेक्षा या पर्यायसंगतिः, अनुक्रमो वा। ८. आरोप्यमाण। ९. अरिर्मोहः, रजो ज्ञानदर्शनावरणवयं, रहः अन्तरायः, कहकमिन्द्रजालं। १०. आजवंजवीभावः संसारः । ११. विस्तार एव नभः। १२. स्थान । १३. बालिका। १४. अवीचिनरकविदोषस्तस्य परिचयः संगतिः। १५. 'मकरो' टि० ख०, पक्षिकाकारस्तु 'मणिमकरिका पुत्तलिका' इत्याह ।