________________
३७८
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
वन्तपवनशुद्धस्यो मुखवा सोचिताननः । असंजालाम्यसंसर्गः सुधीवँधानुपाधरेत् ॥ १५ ॥ "होमभूत" बली पूर्वेश्क्तौ *भक्तविशुद्धये । भुक्त्पादों सलिल 'सविशेषस्यं' व "रसायनम् ||१६|| एतद्विषि धर्मा नाय तकिया । दर्भपुष्पाक्ष तोत्रवन्दना विविधानयत् ।। १७ ।।
हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदान " परः स्यादागमाश्रयः ॥ १८ ॥ जातयोनादयः सर्वास्लस्त्रियापि तथाविधा । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं मात्र नः क्षतिः ॥ १९ ॥ स्वजात्यं विशुद्धानां वर्णानामिह रस्नवत् । तत्क्रियाविनियोगाय "जैनागमविधिः परम् || २० || 'यद्भवान्तिनिर्मुक्तहेतुस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे स्वतः सिद्धे वृयागमः ।। २१ ।।
शुद्ध जल से स्नान किया हुआ अव्यग्रचित्त युक्त होकर पवित्र वस्त्रों से सुशोभित एवं मौन व संयम से युक्त होकर देवपूजा की विधि करनी चाहिए ।। १४ ।। विवेकी पुरुष को दातोन से मुख शुद्ध करके अपना मुख, मुखपर वस्त्र लगाकार आच्छादित करके तथा विना स्नान किये हुए दूसरे मनुष्यों का स्पर्श न करके जिन-पूजा करनी चाहिए ।। १५ ।।
पूर्वाचार्यों ने भोजन की शुद्धि के लिए भोजन करने से पहले होम ( अग्नि में भोज्यांग का हबन करना) और भूतबलि ( पक्षी आदि जीवों के लिए प्राङ्गण में कुछ अन्न का प्रक्षेपण करना) का विधान कहा है । अर्थात् — शिष्ट पुरुषों को भोजन के अवसर पर कुछ अन्न अग्नि में होग करना चाहिए और कुछ अन्न आंगन में प्रक्षेपण करना चाहिए, जिससे उनका भोज्य पदार्थ विशुद्ध हो जाता है। एवं भांजन में जल, घो, दूध व तक का सेवन रसायन सरीखा वल व वीर्यवर्धक कहा है ।। १६ ।। उक्त विधि ( भोजन के शुरु में होमआदि) करना पुण्य-निमित्त नहीं है और उसका न करना अधर्म-निमित्त भी नहीं है। उक्त विधि-विधान तो केवल उस प्रकार माङ्गलिक (पाकुन-निमित्त ) है जिस प्रकार विवाह आदि लोकिक शुभ कार्यों के प्रारम्भ में डाभ का स्थापन, पुष्प अक्षों का प्रक्षेपण एवं शास्त्र-स्थापन और वन्दनवार बाँधना आदि विधि-विधान भाऊलिक ( शकुन - निमित्त ) होता है ॥ १७ ॥
निश्चय में गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का है। एक लोकिक और दूसरा पारलोकिक । इनमें से लौकिक धर्म लोक के आधार वाला है। अर्थात्-ठाक को रोति के अनुसार होता है और दूसरा पारलोकिक धर्म आगमाश्रय है । अर्थात्-यूर्वापर के विरोध से रहित प्रामाणिक द्वादशाङ्ग शास्त्रों का आधार लेकर होता है - उनके अनुसार होता है ॥ १८ ॥ ब्राह्मण आदि वर्णों की समस्त जातियों अनादि ( बाज-वृक्ष की तरह प्रवाह रूप से चली जानेवाली ) हैं और उनकी क्रियाएं भी अनादि है, उसमें वेद व स्मृति ग्रन्थ प्रमाण हों इसमें हमारी आतों - जेनों की ) कोई हानि नहीं है ॥ १९ ॥
1
जिस प्रकार रत्नों की, खानि से निकले हुए रत्नों के लिए संस्कार विधि ( शागोल्लेखन आदि ) विशुद्ध ब्राह्मण आदि वर्णत्राले मानवों की क्रियाओं
महत्त्वपूर्ण होती है उसीप्रकार जाति ( मातृ पक्ष ) से १२. भोजनावसरं किfeat किंचित्लाङ्ग क्षिप्यते ।
अध्यापनं ब्रह्ममशः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमी देयो *. 'क्तिविशुद्ध' इति क० । ३. 'सपिरूअस्य' इति नोतिवाक्यामृत हमारी भाषा टोका १० ३२८. अर्थात्
बलिभाँती नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥७०॥ मनुस्मृति ३ अ० । क० । 'वृताधरोत्तरमुज्ञानोऽग्नि दृष्टि च लभते ||३४|| भू-पानपूर्वक भोजन करनेवाले मनुष्य की जठराग्नि प्रशेष होती है और नेत्रों की रोशनी भी बढ़ जाती हूँ ||३४| ४. दुग्बं । ५. मतिं । ६ शकुनाएँ बंद्यते । ७. पारलौकिकः । ८. निश्चयाय । ९. संसारभ्रमणमोचनमतिदुर्लभा । १० लौकिकव्यवहारे ।