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अष्टम आश्वास:
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ॐ श्रीमद्भगवनाविन्यविनिर्गतद्वादाङ्ग चतुवंशपूर्ण प्र कोणं विस्तीर्ण भूतपारावारपारंगमस्थ अपार संपरायारण्य विनिर्गमानुपसर्गमार्गेण निरत विनेयजमशरण्यस्य कान्तवादमवम लिनपरबाधिक रिकण्डोर कोत्कण्ठ कण्ठार'बापमाण प्रमाणनय गिक्षेपा'नुयोग वाग्व्यतिकरस्य श्रवणप्रणावताना वधारण प्रयोगवामित्वकवित्वगमक शक्तिविस्मापित विनतननिलिम्पाम्बरधर चक्रवतिसोमन्तप्रान्तपर्यस्तो संसका क्सोरभाषिवालितपादपौठोपकण्ठरूप arranger भगवतो रत्नत्रयपुरःसरस्य उपाध्यायपरमेष्ठिोऽष्टतयमिष्टि करोमीति स्वाहा 1
अपि छ । अपास्तेकान्सवादीखानपारागमपारगान् । उपाध्यायानुपासेऽहमुपापाय ताप्तये ॥ ३० ॥
विदित वितथ्यस्य बाह्याभ्यन्तराचरण करणत्रयविशुद्धि त्रिपयागाप्राह्निमूं सितमनोजकुल
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उपाध्याय- पूजा
में ऐसे भगवान् उपाध्याय परमेष्ठी को आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जो श्रीमान् भगवान् अर्हन्त देव के मुखकमल से निकले हुए बारह अङ्गों ( आचार-आदि), चौदह पूर्वो (उत्पादपूर्व आदि ) तथा चौदह प्रकोणकों (सामायिक आदि) के रूप में विस्तीर्ण श्रुतरूपी समुद्र के पारगामी हैं। जो अपार संसाररूपी अटवी से निकलने के लिए वाधा रहित मार्ग के अन्वेषण करने में तत्पर हुए शिष्यजनों के लिए दारणभूत है । दुरन्त एकान्तवाद के मदरूपी कालिमा से मलिन हुए अन्यमतावलम्बीरूपी हाथियों के लिए प्रमाण, नय, निक्षेप व अनुयोग से युक्त जिनका वचन समूह सिंह के बहाने के समान आचरण करता है । श्रवण, ग्रहण, अवगाह्न । विचार करना ), अवधारण, प्रयोग ( शास्त्र के अर्थ को ज्ञापन करनेवाला बचन ), वक्तृत्वकला ( शास्त्र के अर्थ को मुख द्वारा सूचित करना ), कवित्व व तार्किक शक्ति द्वारा आश्चर्य-युक्त किये गए
भूत हुए मनुष्यों, देवां व विद्यावरों के स्वामियों के केशप्रान्त से नीचे गिरी हुई मुकुट माला के पुष्पों की सुगन्धि से, जिनके चरणों के आसन का निकट भाग सुगन्धित किया गया है और जिनका हृदय चारित्र व श्रुतज्ञान से पवित्र है एवं जो पूज्य हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकुचारित्ररूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं ।
मैं पुण्य व ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ एकान्तवादियों को परास्त करनेवाले और अपार द्वादशाङ्ग आगम के पारगामी उपाध्याय परमेष्ठियों की पूजा करता हूँ ।। ३० ।।
साधु-पूजा
मैं विशेष पूजा और ऐसे सर्वसाधु परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जो मोक्षापयोगी जीवादि तत्त्वों के ज्ञाता है। जिन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर चारित्र- पालनरूपों एवं मन, वचन व काम की विशुद्धिरूपी गङ्गानदी के प्रबाह द्वारा कामदेवरूपी वृक्ष के कुटुम्ब का विस्तार जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया है । जिन्होंने
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१. संसाराची । २. अवलोकन । ३. शब्दायमान । ४. बस्तुमाथात्म्यप्रतिपत्तिहेतु प्रमाणं । ५. प्रमाणपरिगृहीता थैंकदेशनिरूपणप्रवणां नयः ॥ ६. प्रञ्दशंकल्पयोग्यतास्वरूप स्तुव्यवस्थापन हेतु निक्षेपः । ७. सामान्यविपाभ्यामवशेषपदार्थावगमःमः अनुगोगः ८ गानं विमर्शनम् प्रयोगः शास्त्रार्थज्ञापनं यवनं । १०. 'वाचोति इति दि० ख० श० पञ्जिकाकारस्तु शास्त्रपरिज्ञानस्य मुखसूचितत्वं वाग्मित्वं । तदुक्तं पुरतः प्रशमितमिवालिखितमिश्र भनोनिपितमित्र हृदयें गृष्टं ? ( प्रविष्टं ) यस्य शास्त्रं स मत् ज्ञाता तपस्य पातु वो निकधावो' इत्यचीकथत् । ११. तार्किकः सिद्धान्तज्ञाता । १२. अब पतित । १३. उप समीपे नमः शुभावहो विधिर्यस्य सः उपायः पुष्यमित्यर्थः पुण्यात १४. नावतच्यस्य । १५. मनोवाक्काम । १६. गंगा |