________________
अष्टम आश्वासः आदी सामायिक फर्म प्रोषधोपासनलिया। सेम्पार्थनियमो दानं शिक्षाबतचतुष्टयम् ॥ १॥ आप्तसेदोपदेशः स्यात्समयः समयापिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कम त सामापिकबिरे ॥२॥ 'आप्तस्थासनिधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । साय मुद्रा न कि कुर्याद्विषसामर्थ्यवदनम् ॥ ३ ॥ अन्तःशुद्धि बहिदि विध्याहेवतार्चनम् । आधा "बौश्चित्पनिर्माशादण्या स्नानाधयाविधि ।।४॥ संभोगाय विशुद्धधय स्माम धर्माप व स्मृतम् । धाय तस्बेस्नानं पत्रामुमोचितो विधिः ॥ ५॥ नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवाचनपरिग्रहे । योस्तु दुर्जनस्परिनाममन्यद्विहितम् ॥ ६ ॥
इस प्रकार दार्शनिक-चूडामणि श्रीमदम्बादास शास्त्री, श्रीमत्पूज्य याव्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य एवं वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के भूतपूर्व साहित्य विभाग के अध्यक्ष न्यायाचार्य' 'साहित्याचार्य व कवि चक्रवर्ती श्रीमत्मुकुन्दशास्त्री खिस्ते के प्रधान शिष्य,नीतिवाक्यामृत के भाषाटीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, 'जैन न्यायतीर्थ, प्राचीन न्यायतीर्थ, कात्यलोथं, आयुर्वेद विशारद एवं महोपदेशक-आदि अनेक जनाधि-विभुषित,सागर-निबासोव परवार जनजातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरि के 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की 'यशस्तिलक दीपिका' नाम की भाषाटीका में 'सच्चरित्र चिन्तामणि' नामका सप्तम आश्वास पुर्ण हुआ।
[ अब शिक्षाद्रतों को कहते हैं-]
सामायिक, प्रोपधोपवास, भौगोपभोग परिमाण और पात्रदान ये चार शिक्षाबत है॥१॥ सामायिक का स्वरूप-अर्हत्परमेष्ठी का पूजा करने का जो उपदेश है, उसे 'समय' कहते हैं एवं उसमें निर्धारित क्रियाकाण्डों (जिन-स्नपन, पूजा, स्तुति व जप-आदि ) को शास्त्रकारों ने उसके इच्छुक श्रावकों का सामायिक नत कहा
मूर्तिपूजा का विधान-जिनेन्द्र भगवान के न होने पर भी उनकी मूर्ति की पूजा पुण्यबंध के लिए होती है । गरुड़ के न होने पर भी क्या उसको मुद्रा विष की शक्ति को नष्ट नहीं करतो ? ॥३॥ विवेको पुरुष को अन्तरङ्ग शुद्धि व यहिरङ्ग शुद्धि करके देवपूजा करनी चाहिए। चित्त से दुष्परिणामों के त्याग करने से अन्तरङ्ग शुद्धि होती है और विधिपूर्वक स्नान करने से बहिरङ्ग शुद्धि होती है ॥ ४॥ स्मान-विधि का निरू. पण भोजन के लिए, विशुद्धि के लिए और धर्म के लिए आचार्यों ने स्नान करना पाहा है। जिसमें परलोक ( स्वर्गादि ) के योग्य कर्तव्य ( दान, प्रत, पूजा व अभिषेक आदि ) किये जाते हैं, वह स्नान धर्म के लिए कहा गया है ।। ५ ।। देव-गजा को स्वीकार करने के लिए गृहस्थ को सदा स्नान करना चाहिए और मुनि को
१. भोगोपभोगसंख्या। २. 'आगमयमुनिमुक्त'-इत्यादि ॥ ९ ॥ रत्नकरण्ड था। 'रागपत्यागाभिपिलानन्येषु
साम्यमवलम्ब्य । 'तत्त्वोपलब्धिमूल नाहयाः सामाविक कार्यम् ।।१४.॥'-पुरुषार्थ 1 ३. तीर्थशासनियानेऽपि प्रतिमा धर्महेतवे । वैनतेयस्य मुद्राऽपि विपं हन्ति न संशयः ॥२२२॥-प्रबोधसार । ४. गरड़ः । ५. अपनोदनम् । ६. अन्तः शुद्धिः । 'मध्यशुद्धि वहिः शुद्धि विदध्यात्तदुपासनें । पूर्वा स्यात् स्वान्तर्गत्यात् परा स्नानाधयाविधिः ॥२२३॥' -प्रबोध०७. 'दुरिणामपरिहारात' दि० स०,१०, १०। पझिकाकारस्तु दौश्चिटयमातरोद्यान' इत्याह । ८. बहिः शुद्धिः । ९. दुर्जनश्याण्डालरजःस्वलादिः ।