Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

Previous | Next

Page 410
________________ ३७४ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये * दिग्देशानर्थदण्णानां विरतिस्त्रितयाश्चयम् । गुणप्रतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ॥ १७९ ॥ 'वि सर्वास्षषः प्रदेशेषु निखिलेषु च । एतस्यां विशि वेशेऽस्मिन्नियत्येवं गतिर्मम ॥ १८० ॥ विवेशनयनादेवं ततो बाह्येषु वस्तुषु । हिंसालो भोपभोगादिनिश्वितयन्त्रणा || १८१ ॥ प्रियं प्रयत्नेन गुणवतत्रयं गृही आजेदत्रयं लभेतं यत्र यत्रोपजायते ॥ १८२ ॥ " आशावेशप्रमाणस्य गृहीतस्य व्यतिक्रमात् । देशधती प्रजायेत प्रायश्चित्तसमाधयः || १८३ ॥ शिटियेन विद्यालयालयः । विवकण्टकशस्त्र [ग्निकशापाशकरज्जनः ॥ १८४॥ "पापाख्यानाशुभाध्यान हिंसा कोडाव्याक्रिया: । परोषतः पशून्यकाल ११ वनकारितः ॥ १८५ ॥ यन्नसंशेषतवोऽन्येऽपि चेवृशाः । भवन्स्थनदण्डाख्याः सांग शमत्रवर्धनात् ॥ १८६॥ 1 [ अच गुणवतों का वर्णन करते हैं ] सज्जन आचार्यों ने दिग्वत, देशव्रत व अनर्थदण्डवत के भेद से गृहस्थ व्रतियों के तीन गुणव्रत नि पण किये हैं || १७९ ॥ दिग्बत व देश का लक्षण पूर्व व पश्चिम आदि समस्त दशों दिशाओं में से अमुक दिशा में नियमित गमन करना, अर्थात् — अमुक दिशा में जन्मपर्यन्त इतने योजन या इसने कोश तक ही जाऊँगा, उससे बाहर न जाना दिग्व्रत है और ( दिग्विति के भीतर कुछ समय के लिए ) अधः व ऊर्ध्व आदि समस्त देशों में से अमुक देश में ही मेरा नियमित गमन होगा, इससे बाहर नहीं जाऊँगा, यह देशद्रत है ॥ १८० ॥ इन व्रतों से लाभ इस प्रकार दिशा और देश का नियम करने के कारण अवधि से बाहर को भोगोपभोग वस्तुओं में हिंसा, लोभ व उपभोग आदि का त्याग हो जाने से चित्त काबू में होता है या मनोनिग्रह होता है ॥ १८१ ॥ तीनों गुणव्रतों की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करता हुआ यह तो श्रावक जहाँ जहाँ जन्म लेता है यहाँ वहाँ आज्ञा व ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।। १८२ ।। दिशा और देश के किये हुए प्रमाण का उल्लंघन करने से ( उससे बाहर चले जाने से ) दिग्बती व देवती को प्रायश्चित्त लेना पड़ता है || १८३ ।। अब अर्थदण्ड व्रत का निरूपण करते हैं- मयूर, मुर्गा, वाज, बिलाव, सर्प और नेवला - आदि हिंसक जन्तुओं का पालना, विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, चाबुक, जाल व रस्सी आदि हिंसा के साधनों को दूसरों को देना, पाप का उपदेश देना, आर्त व रोद्रध्यान करना, हिंसा प्रधान क्रीड़ा करना, निष्प्रयोजन पृथिवी खोदना आदि, दूसरों को कष्ट देना, चुगली करना, शोक करना व दूसरों को रुलाना एवं इसी प्रकार के दूसरे कार्य करना, जो कि प्राणियों का वध, वंधन करनेवाले हैं और दूसरे के रोक रखने में कारण हैं, उन्हें अनर्थ दण्ड कहते हैं, क्योंकि ★ दिन्देशानविरति । मोक्षशास्त्र ७–२१ । १. 'दिवलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिनं यास्यामि । इति संकल्पो दिगामुत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ ६८ ।।' - रत्नकरण्ड श्रा० । २. इमली - नियमिता । वहिष्णुनापप्रविविरदिग्वतानि धारयताम् । पञ्चमहात्रत परिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ ७० ॥ ३. 'अवधे ० । ४. दिशा । अमितगति० ६-८१ । 'विपकण्टकशस्त्राग्नि७-२२ । ७, नकुल । ८. पापोपदेश । जलस्फालनं, अनलसमेन्धनं, पवनकरणमेकेन्द्रिमसनं च । ५. लंघनात् । ६. 'मण्डलविडालकुक्कुट -- इत्यादि ॥ ८१ ॥ रज्जुकादण्ठादि हिंसोपकरणप्रदानं हिमप्रदानम् । सर्वार्थसिद्धि ९. आम्लेटकादि । १०. वृथाक्रियाः निष्प्रयोजनं भूखननं ११. क्रन्दितं रुदितं कुष्टं । १२. संसार ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565