Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
अथवा
सप्तम आश्वासः
मन्मयो माथितस्वान्तः परस्त्रीरतिजातषीः । कष्डारपिङ्गः संकल्पानिपपात रसातले ।। १६२ || इत्युपसका कलस्फारणो नामंकत्रिशत्तमः कल्पः ।
ममेदमिति संकल्प बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु । +परिप्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतोनिकुञ्चनम् ।।१६३॥ ★ क्षेत्रं वान्यं धनं वास्तु 'कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदाः पशवो भाण्डं बाह्या व परिग्रहाः ॥ १६४ ॥ समिध्यात्यास्त्रयो वेदा हास्यप्रभृतयो ऽपि षट् । स्मारक कवायाः स्युरन्तन्याश्चतुवंश ॥ १६५ ॥ चेतनाचेतनासङ्गाद्विधा वाह्य परियहः । अन्तः स एक एव स्याद्भवहेत्याशयाश्रयः ॥ १६६ ॥
बनाया विबुद्धीनामधनाः स्युमंनोरथाः । न ह्यमर्थक्रियारम्भा घोस्तवर्थिषु कामषुक् ॥१६७॥ सहसंभूतिरप्येष बेहो यत्र न शाश्वतः । द्रव्यदारकदारेषु तत्र कास्या ११ महात्मनाम् ।। १६८ ।। स श्रीमानपि निःश्रीकः स नरदन नरामः । यो न धर्माय भोगाय विनयेत १२ वन्नागमम् ॥ १६९ ॥
काम से पीड़ित चित्तवाला और परस्त्री के साथ रति-विलास करने के लिए उत्पन्न हुई बुद्धिवाला कडारपिङ्ग परस्त्री गमन के संकल्पमात्र से नरक भूमि में गिरा ।। १६२ ||
कुशील के कटुक फल की प्रचुरतावाला यह इकतीसवां कल्प
इस प्रकार उपासकाध्ययन
३६७
समाप्त हुआ ।
[ अब परिग्रहपरिमाणाव्रत का निरूपण करते हैं ]
वाह्य ( वन व धान्य आदि ) और आभ्यन्तर ( मिथ्यात्व आदि) पदार्थों में 'यह मेरा है" इस प्रकार के संकल्प को परिग्रह कहते हैं, उसके विषय में मनोवृत्ति को संकुचित करनी चाहिए ।। १६३ || खेत, धान्य, घन, गृह, कुप्य (वस्त्र व कम्बल - आदि ), शय्या, आसन, द्विपद ( दासी दास ), पशु, और भाजन ये दश बाह्य परिग्रह हैं || १६४|| मिध्यात्व, पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, कोष, मान, माया व लोभ ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं ।। १६५ ।। अथवा – चेतन व अचेतन के भेद से बाह्य परिग्रह दो प्रकार का है और संसार के कारणों के आश्रयवाला परिणाम अन्तरङ्ग परिग्रह है, जो कि एक ही प्रकार का है । अर्थात् संसार के कारण मिथ्यात्वादि चैतन्यरूप परिणाम ही है आचार जिसके वह अन्तरङ्ग परिग्रह एक ही प्रकार का है ।। १६६ || धन की तृष्णा से व्याकुलित बुद्धिवालों के मनारथ निष्फल ( धन-होन ) होते हैं; क्योंकि धन चाहनेवालों की निरर्थक वाञ्छावाली बुद्धि वाञ्छित ( अभिलषित - मनचाही वस्तु देनेवाली नहीं होती । अर्थात् - इच्छामात्र से धन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आचार्य ने धन प्राप्ति का कारण लाभान्तराय का क्षयोपशम बतलाया है। अतः धन प्राप्ति के विषय में मातंध्यान नहीं करना चाहिए ॥१६७॥ जिस संसार में साथ उत्पन्न हुआ यह शरीर भी स्थायो ( नित्य रहनेवाला ) नहीं है वहाँपर शरीर से भिन्न धन, पुत्र व स्त्रियों में महात्माओं की आस्था ( श्रद्धा ) कैसे हो सकती है ? ॥। १६८ ।।
जो मानव दान व पुण्य आदि धर्म की प्राप्ति के लिए और न्याय प्राप्त भोगों के भोगने के लिए संचित
★ 'मूर्च्छा परिग्रहः' - मोक्षशास्त्र ज० ७-१७ | १. भाण्डम् । परिमेयं कर्तव्यं सर्व सन्तोपकुशलेनं ॥ ७३ ॥ दि० च० एवं यश० पं० । ३. लोहकर्पूरतैलादि ६. संसाराश्रयपरिणामः । ७. 'घनगढवाच्छा' दि०
९. वाञ्छामात्रा । १०. वाञ्छितप्रदा भविर्न स्यात् । ११. वान्छ । १२. न उपयोगी कुर्यात् ।
संकोचः । *. 'वास्तु क्षेत्रं धनं धान्यं दाशी दासं चतुष्पदं - मि० ० ६ । २. 'वस्त्रादि' टि० ख० 'यस्त्र कम्बलादि ' ४. स्त्रीपुंनपुंसकभावाः । ५. हास्यरस्य रतिशोकभयजुगुप्साः । ख० मश० पं० तु 'घनायाविद्धः गर्छ । ८. निष्फलाः ।