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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
अनवरत 'जलार्द्राच्चोलनस्पन्दमन्छे रतिसरस मृगाली कन्वलंश्चन्दना: । अमृतमरीचिप्रीहितायां निशायां प्रियसखि सुहृबस्ते किचिदात्मप्रदोषः * ॥ १६० ॥
भट्टिनी - आये, किमित्यचापि गोपारयते ।
धात्री - ( कर्णनामनुसृत्य ) एवमेवम् । भट्टिनी - को दोष: 1
धात्री - कदा |
भट्टिनी- यदा तुभ्यं रोचते ।
इतश्चानन्तरायतया "तनयानुमताहितमतिपादयः सचिवोऽपि नृपतिनिवासोवितप्रचारेषु वासुरेषु गुणच्यावर्णनायसरायासमेतस्य महोपतेः पुरस्ताच्छ लोकमिममुपन्यास्यत्"
'राज्य प्रवर्धते तर किल्पों यस्य वेदमनि । शत्रववच अयं यान्ति सिद्धान्तामणेरिव ॥११६१ ॥ ' 'राजा--'अमात्य, यव तस्य प्रादुर्भूतिः कीदृशी च तस्याकृतिः ।
में
एकरयता प्राप्त करने वाले पुरुष की तरह उसकी इन्द्रियों में चेष्टाभाव क्षीणता है और जड़ता है | आज व कल मैं उसके प्राण निकल जायेंगे ।
'प्यारी सखी! निरन्तर जल से भोंगे हुए वस्त्र के पंखों के हिलाने के कारण वेग में मन्द हुए पंखों के द्वारा और अतिस्निग्ध कमल-नाल के चन्दन सहित कन्दों द्वारा शीतोपचार किये हुए तेरे मित्र को -किरणों से वृद्धिगत ( चाँदनी ) रात में कुछ चेतना होती है ।। १६० ।।
पद्मा - 'देवी ! क्या अब भी मुझ से छिपाती हो ?'
बाय- पद्मा के कानों के समीप धोरे से बोलो - 'ऐसा हो है, अर्थात् - कडारपिङ्ग आपको
चाहता है ।'
पद्मा - ' इसमें क्या बुराई है ?" घाय--' तो कब ?'
पद्मा - 'जब तुम चाहो ।'
[ यहां घाय प्रयत्नशील थी, वहाँ मन्त्री भी प्रयत्नशाल था । ]
उधर पुत्र के प्रिय कार्य में बुद्धि की पता स्थापित करने वाले उग्रसेन मन्त्रो ने भी राजा के समक्ष ऐसा श्लोक बे रोक टोक पढ़ा, जो कि राजमहल के योग्य प्रचारवाले पक्षियों के गुणों के कथन के अवसर पर प्राप्त हुआ था ।
'जिस राजा के महल में किञ्जल्प नामक पक्षी रहता है, उसकी राज्य-वृद्धि होती है और सिद्ध किये हुए चिन्तामणि को तरह उससे शत्रु नष्ट होते हैं ।। १६१ ॥
राजा - 'मन्त्री ! यह पक्षी किस स्थान पर उत्पन्न होता है ? और उसकी आकृति कैसी होती है ?'
२. व्यजन ।
१. 'जलाई वस्त्रव्यजनं' इति पञ्जिकाकारः । ५. भषति, ईशो वर्तते । ६. कर्णसमीपं दानैः कथितवती । ९. पक्षिषु । १०. पठतिस्म ।
३. कन्चन्द्रसहितः । १७. कडारपिङ्ग एवं त्वां वाञ्छति ।
४. मनाव
८. पुत्र
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