Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 397
________________ सप्तम आश्वास: ३६१ भट्टिनी-'आयें, एवमेव । यतः । स्त्रीणां पपुवंग्मुभिरग्निसाक्षिक परत्र विक्रीतमिव न मानसम् । स एव तस्याधिपतिर्मतः कृती विम्भगी' ननु यत्र निसिः२ ॥१५९॥ धात्री-पुत्रि, तहि भूयताम् । त्वं किरलकदा कस्यच्चि कुसुमकिसाहनिविशेषवपुषः पुराङ्गनाजनलोचनोस्पलोत्सवामृतरोचिषः प्रामावरि 'सरविहारिणी वीक्षणपथानुसारिणी सती कौमुदीव हृदयचन्द्रकान्तानन्धस्यन्वसंपादिनी अभूः । तदनभति ननु तस्य मवमसुन्दरस्य यूनः प्रत्ययसितवसन्तीसमागमप्तमयस्य "पुष्पंधयस्येच "सालमनामिव भवत्या महान्ति खलु मन्दमक रन्दास्वादने बोहवानि निसान्तं चिन्ताधकारिकान्तं स्वान्तम्, प्रसभं गुणस्मरणपरिणामाधिकरणान्तःकरणम्, अनवरतं रामगीयकानुकीर्तन संकेतं चेतः, प्रविकसकुसुमविलासोचितसनिहितेऽप्यन्यस्मि "ताकाम्साजने महानुगः, पिशाचलितस्येव वाऽथानानुवंघः। प्रलपित्तप्रबंधः, संजातोन्मावस्येव विचित्रोपतम्भः क्रियाप्रारम्भः, स्कन्दगवगृहीतस्पेव प्रतिवासरं कार्यावतारः, स्मराराधनप्रणीतप्रणिधानस्येन्द्रियेषु सन्नता जाता, प्रागंषु चायवोनपया कया। अपि च । पद्मा-'पूज्य देवो! आपका कहना ठीक है, क्योंकि बन्धुजनों द्वारा कामिनियों का केवल शरीर मात्र ही अग्नि को साक्षीपुर्वक दुसरी के लिए बैंचा गया है, न कि मन । इमलिए वही भाग्यशालो या कुशल पुरुष उनके मन का स्यामो माना गया है, जिसके द्वारा उन्हें विश्वास-सहित रति-विलास-आदि का सुख प्राप्त हो ॥ १५९ ॥ घा .मी! तो सु:- ब. समार नग्न महता के सावितन प्राङ्गण पर घूम रही थीं, तम निस्सन्देह किसी ऐसे प्रेमी नवयुवक के नेत्रों की दृष्टि के मार्ग को अनुसरण करनेवाली हुई । जिसका शरीर कामदेवजैसा विशेष मनोज्ञ है और जो नागरिक कामिनी जनों के नेत्ररूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए चन्द्रसरीखा है। उस समय तुम कौमुदी-( चन्द्र-किरण ) सरीखी उसके हृदयरूपी चन्द्रकान्तमणि में आनन्द रूपी जल-निर्गम को उत्पन्न करनेवालो हुई। तभी से लेकर निस्सन्देह कामदेव-सरीखे अत्यन्त सुन्दर उस नत्रयुवक को उस प्रकार आपके मुख को सुगन्धि रूपो मकरन्द (पुरुपरस) के आस्वादन करने के महान मनोरथ हुए जिस प्रकार वसन्तलक्ष्मी के समागम के समय को प्राप्त करनेवाले भोरे के लिए आम्रमन्त्री के रसास्वाद करने का तीन दोहला ( मनोरथ ) होता है। उसी दिन से उसका मन सदा आपको चिन्ता के चक्र से व्याकुलित रहता है। एवं उसका अन्तः करण अत्यन्त आपके गुणों के स्मरण को परिणति का आधार है। उसका चित्त निरन्तर आपके देह-सौन्दर्य के पुनः पुनः स्मरण करने में संकेत-युक्त है। आपको छोड़कर विकसित पुष्पोंसरीखी विलास के योग्य दूसरी लना-सी कामिनी जनों के समीप आनेपर भो उसके हृदय में महान घबड़ाहट उत्पन्न हो जाती है । भूताविष्ट की तरह उसका एक स्थान में सन्ततिरूप से प्रवर्तन नहीं है और उसमें प्रलाप-( बकवाद ) समूह वर्तमान है। पागलों की तरह उसके कार्य का प्रारम्भ विचित्र विभ्रम वाला है, क्षयरोग से पीड़ित रोगी को तरह उसका शरीर प्रतिदिन झीणता प्राप्त कर रहा है। कामदेव की आराधना १. विश्वाससहित।। २. सुखं । ३. किसारुः सस्यसूत्र स्यात्, सूकोस्त्रीश्लदगतीपणाने पुण्यकेसरनमः कनकवर्णः' इति टि० ख०, 'पुष्पोरा रसदृशः मानकवर्ग इवेत्यर्थः' टि० च०, यश० पञ्जिकाकारस्तु 'कुसुमकिमाक;' कामः' इत्याह । ४. उपरितनप्राङ्गण। ५. संजात। ६. भ्रमरस्येव । ७. रसालरचूतः । ८. 'अन मुलपरिमल मकरन्दः' दिखा , 'अत्र मुखकमलमेव मकरन्दः' टि. १०। ९. वत् । १०. संतत्या प्रवर्तनम् । ११. क्षयरोग । १२. 'पेष्टाभावीणता टिच. 'अश्ता' टि.ब.। १३. अद्य कल्ये वा प्राणा: यास्यन्ति ।

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