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यशस्तिलफचम्पूकाव्ये भट्टिनी-( स्वगतम् । ) सत्यं वटित हयमाहम्, पति भवरन युक्तोपपातमणमरितकाया न भविष्यामि । {प्रकाशम् । ) आर्य, हृदयेऽभिनिषिष्टमर्ष प्रोतुमिच्छामि ।
पात्री-वत्से, कथयामि । कि तु । चित्तं वयोः पुरत एक निवनीयं, जानाभिमानधनधन्यप्रिया नरेण । यः प्रायितं न' रहस्यभिपुग्यमानो , यो वा भवेन्लनु जनो मनसोऽनुकूल: २ ॥१५॥
भट्रिना- बातम् । ) अहो भ.glhanायं पङ्क रुपलतुमिच्छति । ( प्रकाशम् I ) आयें, "उभयत्रापि समाहं न चतन्मनुपर्ने भवदुपक्रम वा ।
पात्री-स्वगतम् ।) "अनुगुणेयं खलु कार्यपरिणतिः, यदि निकटतटतन्त्रस्य 'वहित्रपामस्पेन दुर्वाताली" समिपातो न भवेत् । (प्रकाशम् । अत एव मन, वन्ति पुराणचित्रः--
'विप्रोः कलत्रेण गोतमस्पामरेश्यरः । ११सतनोवापि । दुधर्मा ममर्गस्त'३ पुरा कित ||१५८॥'
घाय-'परम सौभाग्य शालिनी देवी ! यदि तुम्हारा हृदय वअघटित नहीं है तो इस सुभाषित का रहस्य ( अभिप्राय ) तुम जानती ही हो।'
पया--(मन में ) 'यदि आपके द्वारा फेंके जाने वाले प्रहार रूपो घनों द्वारा जर्जरित शरीर बालो नहीं होऊंगी तो वास्तव में मैं बज्नघटित हृदय वाली है।' । प्रकाश में) 'माता! मैं आपके मन में स्थित हुमा अभिप्राय सुनने की इच्छा करती है।'
वाय-'पुत्री ! कहती हैं, किन्तु
ज्ञान और स्वाभिमान रूपी धन से धन्य बुद्धिवाले मनुष्य को दो व्यक्तियों के सामने ही अपने मन की बात कहनी चाहिए । १. प्रार्थना किया हुआ जो व्यक्ति प्रार्थना को हुई वस्तु छुढ़ाता नहीं है, अर्थात्प्रार्थना की हुई वस्तु दे देता है । २. निस्सन्देह जो मानव प्रार्थना करने वाले के मन के अनुकूल है ॥ १५७ ॥
पद्मा-(मन में ) 'अहो ! आश्चर्य है, कि यह आकाश के स्वभाव-सरीखी निलित वस्तु को भो कीचड़ से लोपने की इच्छा करती है। अर्थात्-आकाश-सी निर्मल प्रकृतिवाली पतिव्रता मुझको यह घाय कुलटा स्त्रोजनों के दोषम्सपो कोचड़ में लोरना चाहती है ।' (प्रकाश में ) 'पूज्य दचो ! में आपको दोनों बातों में (प्रार्थना की हुई वस्तु के देने में और आपके मन की अनुकूलता में ) समर्थ हूँ। यह मेरो उपाधि नहीं है और न इसमें आपका उद्यम ही है, क्योंकि मेरी पहले से ही ऐसी प्रवृत्ति है।'
धाय- मन में ) यह कार्य का परिणमन मेरे अभिप्राय के अनुकूल है, परन्तु यदि तट के समीप प्राप्त हुई नौका के लिए प्रतिकुल चलनेवाली प्रचण्ड वायु के झकीरों का वेग से आगमन न हो । अर्थात् मेरा कार्य इस समय सिद्ध प्राय है, यदि इसमें विघ्न न हो।
(प्रकाश में ) 'पुत्रो ! इसीलिए पुराणकारों ने कहा है कि-निस्सन्देह प्राचीनकाल में चन्द्रमा ने वहस्पति की पत्नी के साथ ति विलास क्रिया व इन्द्र ने गौतम को प्रिया ( अहिल्या के साथ
साथ एवं रुद्र ( श्रीशिव ) ने शान्तनु राजा की रानी के साथ रतिविलास किया ॥ १५८ ।। १. न त्याजयति । २. प्राथितः प्राप्यमानः । ३. हितः। ४. आकाशस्वभाव । ५. प्रायितदाने मनोनुकूललायाश्च ।
६-७. न हि मदीय उपाधिनं च भवदीय उद्यमः किन्तु पुरंत्र ईदगी गतिरस्ति । ८. अनुकला इयं । ९. पोतस्य । १०. पात्या । ११. शान्तनुराजः । १२. हरः । १३. एकत्र बभूव ।