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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पण्डितधात्म' 'त्यमन्यथा सरससरसो'रम्मसोरिय इमोरपि द्रवत्वभाषयोरेकीकरणे किं नु नाम "प्रतिमाविजृम्भितम् । किछ ।
सा यूसिकाभिमतकार्यषिषौ बुधानो घासुर्यवयंवचनोधिचित्तवृत्तिः । या नुम्सकोपलकलेव हि शल्पमन्तश्चेतोनिकामपरस्य बहिष्करोति ॥१५५॥
सबकं विलम्बैन । परिपश्यफलमिव न खलु व्यतिक्रान्तकालमवः सरसताधिष्ठानमनुष्ठानम् । फित्वस्य साहसावलम्बनधर्मणः कर्मणः सिद्धावसिद्धौ पा वापरेगिताकारसबंः प्राजः कथमपि जनाधकाशे प्रकाशे कृते' सति "पुरभारी हि शरीरो भवति चुरपवावपरागावसरों पसनगोचरश्च1 सदभूत 'येयमिवमवसेपम तितीपापत्यप्रसवाय सचिवाय, तदुवाहरन्ति न वानिवेश भर्तुः किंत्रिवारम्भं कुर्यावन्यत्रा परप्रतीकारेभ्यः ।' इति । (प्रकाशम्।)
___ 'प्राणप्रियंकापस्य अमात्य ५ दश इथ ननु भवादशोऽपि जनो "जातजाषितामृप्तनिकाय "अचिररनं यत्न कर्तुमर्हसि । अशक्य विश्वास वाला है । अर्थात्-बड़ा कठिन है । अथवा यह कार्य-रचना सुलभता पूर्वक प्रयत्न करने के लिए शक्ष्य है। अर्थात्-सरल है। क्योंकि तपे हुए बीर बिना तपे हुए लोहों के समान परस्पर विरुद्ध दो चित्तों के अनुकूलीकरण के लिए निस्सन्देह विद्वानों के द्वारा जो प्रकाश के योग्य प्रयत्न किया जाता है वही तो वास्तव में दूतत्व है। अन्यथा द्रवीभूत वेगवाले दो जलों की तरह दो तरल हृदयों को मिलाने में दूनी का बुद्धिविस्तार क्या कहा जायगा?
विद्वानों ने ऐसी दुती इष्ट कार्य करने में समर्थ मानी है, जिसकी मनोवृत्ति बुद्धि की चतुराई से श्रेष्ठ वचनों के योग्य है । जो चुम्बक पत्थर को तरह दूसरे के मन के भीतर की शल्य को ( पक्षान्तर में लोहादि को ) खींचकर बाहर फैंक देती है ॥ १५५ ।।।
___ अतः इस कार्य में विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं । जैसे समय के बीत जाने पर पका फल मो सरस नहीं रहता वैसे हो समय बीत जाने पर कार्य भी सरस ( सिद्ध) नहीं होता, किन्तु यह कार्य साहस के आश्रय से साध्य है। यदि भाग्योदय से सिद्ध हो गया तो दूसरों का मानसिक अभिप्राय और शारीरिक आकृति के जानने में सर्वज्ञ विद्वान् लोग बड़े कट से बहुत लोगों के मन में प्रत्यक्ष रूप से स्थान (सन्मान) प्राप्त कर लेते हैं, जिससे माहरा कर्म करने वाला मनुष्य अग्रेसर श्रेष्ठ हो जाता है। परन्त भाग्यम्बक के पलट जाने से ज सिद्ध नहीं होता तो दूत हो अपकीति रूपी धूलि पड़ने का अवसर प्राप्त करता है और विपत्ति में फंस जाता है । अतः में यह कार्य, इकलौते पुत्र को उत्पन्न करने वाले मन्त्री से कहती हैं। क्योंकि नीतिकार आचार्यों ने कहा है कि 'असह्य संकट दूर करने के सिवा दुसरा कोई भी कार्य सेवक को स्वामी से निवेदन किये विना नहीं करना चाहिए । अर्थात् केवल आपत्ति का प्रतीकार स्वामी को बिना निवेदन किये भी करना चाहिए।
ऐसा मन में सोचकर घाय मन्त्री से स्पष्ट बोलो-'प्राणों से प्यारे इकलौते पुत्र वाले हे मन्त्री ! निश्चय
१-२. प्रकाश्यं यत्कियते तदेय दूतत्वम् । ३. द्रवीभूतवेगयोः । ४. जलयोरिव । ५. मति । *. पाले लोहादिकं ।
* चित्तमध्ये । ६. कार्य । . यथा पक्व फलं अतीतका सरसं न भवति। ८. कार्य। ९. दूतः । १०. दूतो भवति । ११. कथयामि । १२. कार्य । १३. आचार्याः कथयन्ति । १४. किन्तु आपत्प्रतीकारः स्वामिनः अनिवेद्यापि करणीयः, अन्यत्कार्य कथनोयमित्यर्थः । १५. हे मन्त्रिन ! । १६. पूर्व स्वमपि ईदृशो वमूवंति भावः । १७. पुनजीवितर्मवामृतं तत्सेचनाय । १८. शीन' ।