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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये पुरस्कारमारमसंस्कारं विषाय कायकवायफर्शनां सल्लेखनामनुष्ठाय निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्षमुतराम', प्रतिपय सुरसुम्सनुहमा वसूत्र पूर्वमेव । तदादेशावात्मदेशेषदेशवः' सफलसिद्धान्तकोविवो नारबः सदगुणभूरेः क्षीरकदम्बसूरेः प्रवज्याधरणं स्वर्गावरोहणं वावगत्य 'गुरुवगुरुपुत्रं गुरुकलत्रं पश्येत्' इति कृतसतस्मरणः पर्याप्तसदाराषनोपकरणस्तद्विरहदुःप्तदुर्मनसमुपाध्यायानों जननों सह पांसुकीरितं पर्वतं च ब्रष्टभागत: 1
___ अपरेशस्त पर्वतम् 'अजयंष्टवयम्' इति धामयम् 'अर्जरजात्म यष्टम्यं हण्यकश्यार्थो विधिविधातम्यः' इति घद्धामात्रावभासिम्योऽन्तेवासिन्यो 'स्याहरन्तमुपभुल्म 'बृहस्पतिज पर्वत, मैवं व्याख्यः । कि तु 'न जायन्त इत्यमा घर्षत्रयप्रवृत्तयो खोयस्तयंन्टव्य शान्तिकोष्टिकार्या क्रिया कार्या' इति "परार्यषाचार्यादिदं वाक्यमेवमोच पारसज५ सवाचिन्तयाव । तत्कपमपम" एवं सव मतिर्वापरवसति: १२ समजनीति अविस्मयं मे मनः ।। आचार्यनिकेत पर्वत, यवनद्यश्वाने 'प्याभिषाने 16 भवानपरवामपि विपर्यस्पति ६, नवा पराधीने 'माग्वित्रीने को नाम संप्रत्ययः ।
समह का लुचन करके स्वर्ग लक्ष्मी की सखी जिनदीक्षा धारण करके समस्त जिन-सिद्धान्तों की समीक्षावाली शिक्षा प्राप्त कर चारों प्रकार के मुनि संघ को सन्तुष्ट करने वाला आचार्य-पद प्राक्ष किया, जो कि मुनि संघका संरक्षण रूपाचं एकत्वादि पाँच भावनाओं के साथ रहने वाला आत्म-संस्कार करके और आय के अन्त में काय व कपाय को बाश करने वाला समाधिमरण धारण किया और ऐसा सन्यासमरण प्राप्त क्रिया, जो कि समस्त दोपों को आलोचना-पूर्वक शरीर-त्याग में समर्थ है, जिससे वह पूर्व में ही देव लोक का सुख प्राप्त करके कूतार्थ हो गया।
समस्त शास्त्रों का वेत्ता व मोक्षमार्गी नारद पूर्व में ही गुरु को आज्ञा लेकर अपने देश की ओर चला गया था। उसने जब प्रशस्त गुणों से महान् आचार्य क्षोर कदम्बक को दीक्षा-ग्रहण व स्वर्गारोहण के समाचार सुने तो उसे 'गुरु के समान ही गुरु-पुत्र व मुरुपत्नी को मानना चाहिए।' इस नोति वाक्य का स्मरण हो गया। इसलिए वह उसकी सेवा की सामग्री ( वस्वादि । भेट लेकर पति-वियोग के दुःख से दुःखित चित्त बाली माता-सरोग्यो गुरुपत्नी और एक साथ चुलि में कोड़ा किये हुए मित्र पर्वत को देखने के लिये आया।
दुसरे दिन नारद ने पबंत को, जो कि गुरु-वचनों की प्रतीति से चमत्कारी छात्रों के लिये 'अजेयष्टव्यम्' इस वाक्य का 'बकरों के बच्चों की बलि द्वारा देवकार्य व पितृकार्य (श्राद्ध) करना चाहिए।' इस प्रकार का विपरोत अर्थ कहते हए सुना तो उसे रोककर कहा-'वृहस्पति-सरीखे विद्वान् पर्वत ! ऐसी विपरीत व्याख्या मत करो । विन्तु 'मज' अर्थात्-'जो न ॐग सके ऐसे तीन वर्ष के पुराने धान्य से शान्ति व पुष्टिक्रिया करनी चाहिए ।' ऐसा अर्थ करी। क्योंकि हे मित्र ! गत तृतीय वर्ष में ( तीन वर्ष पूर्व ही आचार्य से हम दोनों ने उक वाक्य का ऐसा ही अर्थ सुना था । एवं गतवर्ष हम दोनों ने साथ-साथ उसी प्रकार चिन्तवन भी किया था। तब इसी वर्ष में ही तुम्हारी बुद्धि संक्षिय कैसे हो गई ? यह जानकर मेरा मन विशेष आश्चर्यान्वित हुआ है। पर्वत ! तुम आचार्य को गद्दी पर हो । जब आप पुराने अर्थ-कथन में स्वतन्त्र होकर भी इस प्रकार उल्टा अर्थ करते हो । तब पराधीन हम-सरीखों के अर्थ कथन के स्वामित्व में किस प्रकार विश्वास हो सकता है? १. सन्मामं । २. नारदो गतः अर्थात्-मोक्षमार्ग वर्तमान इत्ययः, टि. सन्, 'आत्मदेशोपदे शदः' इति प.
'आत्मदेशोपशमः' इति कार, पञ्जिकाकारस्तु 'अपसदः गतः, उपसदो वा गतः' इति प्राह, अयांत--तन्मते 'आत्मदेशपसदः' इति पाठः साधुः। ३. गृहीत । ४. डागपुः। ५. गुरुवचनप्रतीतिचमत्कारिभ्यः । ६. कथयन्तं । ७. गततृतीयवर्षे एव हे मित्र !। ८, आवां श्रुतबन्ती । २. गतवर्षे । १०. सह । ११. इदानीमस्मिन् वर्षे । १२. संचयः । १३. पुराणे । १४. अर्धकयने । १५ . स्वतंत्रः । १६. विपरीतं करोति । १७. मावशां विधिस्तस्प इने ईश्वरे ।
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