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यशस्तिलकचम्पूकाव्य रक्ष्यमाणे हि वृहन्ति यत्राहिसायो गुप्ताः । उदाहरन्ति तद्बा' ब्रह्मविद्याविशारदाः ॥ १३८ ॥ मबनोद्दीपनयतमवनोहोपर्म रसः। मवमोद्दीपनः शास्त्रमपमात्मनि मानरेत् ॥ १३९ ॥
हयरिब हुतप्रीतिः पाथोभिरिय" नीरषिः । तोषति पुमानेव न भोगर्भवसंभवः ॥ १४ ॥ प्रविधिविषयाः पुंसामाधाते मधुरागमाः । अन्ते विपतिफलवास्तत्सतामिह को पहः ॥ १४१ ।। बाहिस्तास्ताः बियाः कुर्वकारः संकल्पजन्मवाम् | भावाप्ताव निर्वाति १०वलेवास्तघ्राधियः परम् ।। १४२।।
"निकान । कामकामास्मा तृतीया प्रफुतिर्भवेत् । नन्सवीर्यपर्यायस्तस्मानारप्तसेवने ।।१४३।। सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फसाय'५ हितकामिनाम् १६ | अपरत्रार्यकामान्यां यतो मलां तदपिषु ॥१४४॥ वनबुजनों को स्त्रियों से एवं तपस्विनी स्त्रियों से संबंध नहीं करना चाहिए ।। १३७ ॥ निस्सन्देह जिसको रक्षा की जाने पर अहिंसा-आदि गुण बृद्धिगत होते हैं उसे अध्यात्म-विद्या में प्रवीण आचार्य ब्रह्म कहते हैं ॥ १३८ । अतः काम की वृद्धि करनेवाले सरागी कार्यों से और कामोद्दापन करनेवाले रसों के सेवन से एवं काम-वर्धक शास्त्रों ( कामसूत्र-आदि ग्रन्थों) के श्रवण-पठन से अपनी बात्मा में काम का मद नहीं लाना चाहिए ॥ १३९ ॥ जैसे देवताओं के लिए समर्पण करने योग्य द्रव्यों ( घृत-आदि हवन सामग्री ) में अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती एवं जेसे प्रचरजल से समद्र तप्त नहीं होता धैसे ही यह मानब भी सांसारिक भोगों से कभी तप्त नहीं होता ॥१४॥ स्त्री-आदि गंचेन्द्रियों के विषय वैसे आरम्भ ( तत्काल ) में पुरुषों को मधुर ( प्रिय ) मालाम पड़ते हैं और अन्त में विपत्ति ( दुःख । रूप फल देनेवाले होते हैं जैसे वत्सनाग विप आस्वादन-काल में मधुर ( स्वादिष्ट-मोठा ) होता है और अन्त में विपत्ति (मरण) रूप कुफल देनेवाला होता है, इसलिए सज्जनों का विषयों में आग्रह केले हो सकता है ?॥ १४१ ।। अनेक प्रकार की बाह्य क्रियाओं को करता हुआ कामी पुरुप रति-रस की प्राप्ति में ही सुखी होता है, परन्तु उसमें उसे केवल क्लेश ही अधिक मिलता है और मुख तो बहुत थोड़ा नाम मात्र होता है ॥ १४२ ।। जो मानव विशेष रूप से काम सेवन की इच्छा के स्वभाव वाला है वह निरन्तर काम का सेवन करने से असमय में नपुंसक हो जाता है, इसके विपरीत ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वह अनन्न वीर्य के धारण करने के अवसर वाला होता है।
___ भावार्य प्रस्तुत आचार्य श्री ने नीतिवाक्यामृत के व्यसन-समुद्देश में लिखा है कि स्त्रियमतिशयेन भजमानो भवत्यवश्य तृतीया प्रकृतिः ।। १ । सोम्यबासुक्षवेण सर्वधातुक्षयः ॥ २॥ अर्थात्-अपनी स्त्री को अधिक मात्रा में सेवन करनेवाला मानव अधिक वीर्य धातु के क्षय हो जाने से असमय में युद्ध या नपुंसक हो जाता है ॥ १ ॥ क्योंकि स्त्री सेवन से पुरुष को शुक्र ( बीर्य | धातु क्षय होती है, इससे शरीर में वर्तमान वाको को समस्त रह धातुएँ ( रस, रुधिर, मांस, मेद व अस्थि-आदि । मष्ट हो जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि नैतिक पुरुष को योर्य रक्षार्थ ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए अथवा अपनी स्त्री को अधिक मात्रा में संवन का ' स्याग करना चाहिए ।। १४३ ॥ १. 'अहिंसादयो धर्मा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म।' –नवासिडि ५-१६ । २. मरागानुशनः ।
३. बैबदेयद्रयः । ४. अग्निने तोपर्मति । ५. जनः । *. किंगाकफलसम्भोगनिम लद्धि भैथुनम् । आपातमात्ररम्य स्याद्विपाकऽत्यन्सभोतिदम् ॥ १० ॥ --ज्ञानार्णय पृ० १३४ । ६. सनागोपि आस्वादन सनि मुष्टः (स्वादिष्टः ) स्पात् । ७. आरम्भे । ८. स्वादु प्रियौ तु मयुरी। ९-१०. रतिरसप्ताप्तरबेत्र सुम्मो भवति किन्तु तत्र मुख स्सोकम् । ११. मतीव । १२. कामवाझ्यास्वभावः । १३, नमकः । १४. हिला । १५. हिताय । १६. हिनाभिलाधिगां। १७. परन्तु अर्थकामलक्षणा क्रिया फलाय न स्यादित्यर्थः । १८. पस्मान् कारणात् । १९-२०. लावर्थकामी न स्तां न भवेलां, तेषु तदर्थिषु अर्थकामवाञ्छकेषु, कार्यस्तेषु तृप्ति भवतीति भावार्थः ।