________________
सप्तम आश्वासः विहितविचित्रवघरहसी' विचित्रा' परिठ्या 'नाधीयो दुःस्वयमत्यरं तसमगाताम् । पर्वतोऽप्यनायोपतिविजये "जठरधनंजये । “हत्य कट्यकर्मभिः समाचरितममस्तसत्त्वसंहारः कालासरतिरोपान "विधुरविधिमारस्तविरहासङ्कशो 'कशोषिकेश्पच्छरीर: १२ कालेन जीनोवितप्रधारः । सप्तमरमावसरः समपादि । भवति चात्र इलोकः
मृषोद्वादोन बोद्योगापर्वतेन समं वसुः । जगाम जगतीमूलं चलदासछुपावकम् ।। १३५ ॥ इत्युपासकाप्ययने असत्यफलसूचनो नाम त्रिंशसमः कल्पः । ५ ववित्तस्त्रियी हित्वा “ सर्ववाल्यत्र ताजने'" । भासा स्वसा तन नेति मतिब्रह्म गृहाश्रमे ।। १३६ ।।
२"धर्मभूमौ स्वभावेन भनुष्यी नियतस्मरः । । यम्जात्यंत २ पराजातिबन्धलिङ्गिस्त्रियस्स्यजेत् ।। १३७ ॥ स्मरण कराकर यज्ञ के बहाने से उन दोनों को यज्ञ को अग्नि में हाम दिया, जिससे वे विचित्रवध-लक्षणवाले हुए । इसके उपरान्त वे दोनों वालुकाप्रभा नामकी तीसरो नरक-भूमि के विस्तुत तल में चले गये, जो कि दुःखदायक परिताप से मन्दगमन वाला था।
पर्वत ने भी अग्नि को तिरस्कार करने वाली अपनी जठराग्नि में देवताओं और पितरों को तृप्ति के बहाने से समस्त प्राणियों का संहार कर डाला। कालासुर के तिरोधान हो जाने से उसकी यज्ञ विधि असमर्थ ( फीकी ) हो गई। उसका शरीर कालासुर के वियोग-दुःख रूपी योकाग्नि से कृश हो गया ! आयु के अन्त में उसका जीवन-प्रचार क्षीण हुआ और मरकर सप्तम नरक-भूमि में गया !
इस विषय में एक श्लोक है, उसका भाव यह है....
झूठ बोलने के दोप में प्रवृत्ति करने के कारण पर्वत के साथ बसु भो सप्तम नरक में गया, जहापर संतापरूपी अग्नि प्रज्वलित रहती है ।। १३५ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में असत्य का कटक फल सूचित करनेवाला तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। अब ब्रह्मचर्याणुव्रत का निरूपण करते हैं
अपनी विवाहिता स्त्री और रखेली स्त्रो के सिवाय दूसरी समस्त स्त्रीजनों में अपनी माता, बहिन व पुत्री की बुद्धि रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत है ।। १३६ ॥ धर्म भूमि आर्यखण्ड में मनुष्य स्वभाव से ही अल्पकामा होता है, अतः उसे अपनी जाति को विवाहिता स्त्री से हो संभोग करना चाहिए और दूसरो कुगालियों की तथा १. तत्यो बधलक्षणादायौं। २. वालुकाप्रभायाः। ३. दीर्धतर। ४. परितापन मन्दगमनसहित । ५. गती।
६. अग्नितिरस्कारके। ७. निजोदराग्नी। ८. देवदर्य । ९. पितृदयं । १०. असमर्थ । ११. गांफाग्निः । १२. तनप्रभवत । १३. जीर्ण अयवा क्षीणः । १४. सप्तमभूमि । १५. संजातः । १६. 'आमीनवं दोपः' टि० च०, यश० पं०, 'त्रासक्दोषः' टि. १० । १७, परिणोना अत्रचता च । १८. मुस्त्वा । १९. स्त्रीजने । *. 'न तु परदारान गच्छति न परान् गमयति च पापभीतयत् । मा परदारनित्तिः स्वदारसन्तापनामाऽपि ॥५९||--
रत्नकरण्ड था० । 'उपात्ताया अनुपात्तावाश्च परामनायाः राङ्गानितरतिहीति चतुर्षमणुनतम् ।'—सायसिद्धि ७, २० । २०. आर्यखण्डे । २१. अल्पकन्दपः तस्य वेगाः दग, तथाहिचिन्तादिदृक्षानिश्वासज्वरसापारुचिरपि । मूर्योन्मत्तत्वसंक्षिपप्राणमृत्यून् भविटः ॥ १॥ २२. स्वजाया परिणीतया सह संभोगः कार्यः अथवा सन्तोषः कार्यः । २३. परा चासौ अजातिश्च पराजातिः परकीयजातिस्त्री. बास्त्रीलिङ्गिनीस्त्री त्यजेत् यस्मात् ।