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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
किल सदाचरणमूरिः क्षोरकदम्बकसूरिः शिष्टोध्यामिव स्वाध्याय संपादन विशालायां सुवर्णगिरिगुहाङ्गः शिलाया. मेकवा तस्मै युवा गतस्मयाय यथाविधि समाजांस वसवे प्रगलितपितृपाण्डित्यगवं पर्वताय सम् पर्वताय गिरिकूटपतनवतेविश्वनाम्नो विश्वंभरापतेः पुरोहितस्प "विहितान वा विद्याखावंचरणसेवस्य विश्वदेवस्य नन्दनाय नारवा निवाना च "निखिलभुवनव्यवहारतन्त्र मागमसुत्र मतिमधुरस्वरापदेश' सुपविशन म्बरादवतर समाम्याममितयत्यनन्तगति न्यामृषिभ्यामोशांच ।
सूर्याचन्द्र
तत्र समाससुगतिरनन्त गतिभं गया किलंत्रमभाषत भगवम् एत एवं लघु विदुष्याः शिष्याः, पदे धमनवयं ब्रह्मयविद्यमेत "स्मावृप्रन्पार्थप्रयोगमङ्गोषु' 'यथार्थप्रदर्शनतया १३ विधूतोपाध्यायादुपाध्यापाक सधियोऽधीयते ।'
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प्रयुक्तावधिशोथ स्थितिरमितगतिर्भगवान् -- ' मुनिषन् १४ सत्यमेतत् । किरवेषु चतुर्षु मध्ये द्वाभ्यामंसिगौरवपदार्थववषः प्रबोधोषितमतिभ्यामिदमतिपवित्रमपि सूत्रं विपर्यासयितम् ।'
एतच्च प्रवचनलोचनालोकितव ह्यस्तम्बः " क्षीरकवम्बः संश्रुत्य नूनमस्मिन्महामुनिवाक्येऽर्थात्सप्तचि ८
एक समय निस्सन्देह विशेष सदाचारी क्षीरकदम्ब नामक विद्वान् सुवर्ण गिरि की गुफा के आंगन की शिला पर जो कि उस प्रकार स्वाध्याय के सम्पादन के लिए विशाल ( विस्तृत ) थी जिस प्रकार शिष्य की बुद्धि स्वाध्याय के सम्पादन में विशाल ( प्रखर ) होती है, गर्व-रहित ( विनोत ) व यथाविधि अध्ययन के इच्छुक वधु राजकुमार के लिए और अपने पुत्र पर्वत के लिए, जिसका पिता को विद्वत्ता का गर्वरूपी पर्वत नष्ट हो चुका था एवं नारद नामक शिष्य के लिए, जो कि गिरिकूट नगर के स्वामी राजा विश्व के पुरोहित व निर्दोष विद्या के बाचार्यों का वरण सेवक विश्वदेव का पुत्र था, त्रैलोक्य के वर्णन के सुम्प्रदाय वाले सिद्धान्त-सूत्र का अमन्त मधुर स्वर सहित उपदेश देता था। इसी अवसर पर आकाश से उतरते हुए व सूर्यचन्द्रमा सरीखे अमितगति व अनन्तमति नामके चारणऋद्विघारी ऋषियों ने उसे देखा ।
उनमें से समीपवर्ती प्रशस्त गतिवाले अनन्तगति सुनि निस्सन्देह बोले- 'भगवन् ! निस्सन्देह ये ही शिष्य विद्वान हैं; क्योंकि ये लोग एक अभिप्रायवाली बुद्धि से युक्त हुए ग्रन्थ के अर्थ की प्रयोग रचनाओं को यथार्थ दिलाने के कारण दुराचार को उत्पत्ति को नष्ट करने वाले ( सदाचारी ) इस उपाध्याय ( शिक्षक ) से, तीर्थंकरों द्वारा कहा हुआ निर्दोष शास्त्र पढ़ रहे हैं 1
उपयोग की शक्ति से अवधिज्ञान की स्थिति लानेवाले भगवान् अमितगति ने उत्तर दिया- 'मुनिश्रेष्ठ ! आपका कहना सत्य है, परन्तु इन चारों के मध्य दो शिष्य उस प्रकार अधः ( नरक ) के अनुभवन के योग्य बुद्धिवाले होंगे जिस प्रकार जल में फेंकी हुई वजनदार वस्तु ( पाषाण आदि ) अघ: अनुभवन के योग्य ( नोचे जानेवाली ) होती है। क्योंकि उनके द्वारा अत्यन्त पवित्र भी शास्त्र का अर्थ विपरीत उल्टा किया जायगा ।'
१. पट्टशालायां । २. रहिताय । ३. अध्येतुमिच्छ । ४. कृत । ९. वर्णन संप्रदायं सिद्धान्तं । ६. स्वर सहितं । ७ चत्वारः । ८. विचक्षणाः । १. शास्त्रं । १०. उपाध्यायात् । ११. रचनासु । १२. विषूतः स्केद्रितः उपाविकारस्य आय आगमनं येन सः तथाकस्तस्मात् टि० ० पञ्जिकाकारोश्याह - विधूतः स्फेटितः उपाधेरसदाचारस्य जाय: उत्पादों येन सः तस्मात् । १३. एकाभिप्रायाः सर्गः स्वभावनिर्मासनिश्चयाध्यायसूष्टिसु 1 १४. श्रेष्ठ । १५. जले यथा गुरु वस्तु निमज्जति । १९. अनुभवन । १७ ब्रह्माण्ड | १८ सप्तरुधिरग्निः ।