Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम आश्वासः
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कुण्ठे ( जे ) पष्टिरशीतिः स्यादेकाले धिरे शतम् । धामने च शतं विंशं दोषाः पिङ्गे व्यख्यकाः ॥१२३. मुखस्या' शरीरं स्याद्प्राणार्थं मुखमुच्यते । नेत्राधं प्राणमित्या हस्तलेषु नपने परे ॥ १२४॥
इत्याविभिः स्वयं विहितविरचनं धुपिङ्गले विप्रोति कारयामास ।
"ततशय मनसोरभपषः पानलुब्धबोधस्तनंषयेषु पुष्पंषमेष्विव मिलितेषु स्वयंवराङ्गारिताहूंकारेषु महीश्वरेषु सा मन्दोदरीचशमानसा सुलसा युतिमनोहरं समरमणीत निम्नधरोपगापगेष" सागरम् ।
कराई |
भवति यात्र श्लोकः -
श्रपि समर्थः स्यात्सहार्य विजयी नृपः । कार्यायान्तो हि कुत्तस्य दण्डस्तस्य परिच्छदः ।। १२५॥ इत्युपा सकाध्ययने सुलतायाः सगरसंगमो नामाष्टाविंशः कल्पः ।
ही वरण करने की प्रतिज्ञा करा ली। बगुला-जैसी कुटिल वृत्ति में वृहस्पति मरीखे राजपुरोहित ने भी अनेक उपदेशों से उस राजा का और महारानी का मन अपने वश में कर लिया ।
इसके उपरान्त उसने उन्हें स्वयं रचे हुए श्लोकों द्वारा मधुपिङ्गल के विषय में विरकता उत्पन्न
उन श्लोकों का भाव यह था -
टुण्टे में ६० दोष होते हैं, काने में ८० और बहरे में सौ दोष होते हैं। बोने में एक सौ बीस दोष होते हैं, किन्तु पीत नेत्रचाले में तो अगणित दोष होते हैं ।। १२३ ।।
समस्त शरीर, मुख के मूल्य को प्राप्त करता है, अर्थात् शरीर में मुख कीमती होता है। मुख नासिका का मूल्य प्राप्त करता है ( मुख में नासिका श्रेष्ठ होती है ) । एवं नासिका नेत्रों का मूल्य प्राप्त करती है ( नासिका को अपेक्षा नेत्र श्रेष्ठ हैं ) । तथा नेत्र शरीर, सुख व नासिका आदि के मध्य सर्वोत्कृष्ट माने गये
।। १२४ ।।
इसके बाद स्वयंवर हुआ
स्वयंवर में बुलाने से वस्त्राभूषणों से मण्डित होने के कारण अहङ्कारी राजा लोग, जिनके ज्ञानरूपो शिशु, चम्पक-वल्लरियों की सुगन्धिरूपी दुग्धपान में विशेष लुक्न है, भोरों की तरह जब स्वयंवर मंडप में एकत्रित हुए. तब उनमें से मन्दोदरी प्राय के अधीन हुई मनोवृत्ति वाली मुलसा ने कर्मों के लिए मनोज्ञ सगर राजकुमार को वैसा वरण किया जैसे नीचो पृथिवो पर गमन करनेवाली नदी समुद्र का वरण करती है - उसमें प्रविष्ट होती है ।
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है—
राजा शक्तिशाली थोड़े से भी सैनिक सहायकों से विजयश्री प्राप्त करता है। जैसे भाले को नौंक ही अपना कार्य (प्रहार ) करती है, उसमें लगा हुआ दण्ड तो केवल सहायक मात्र है ।। १२५ ।।
३. एकनेत्रस्य मूल्यं सुगन्धना एवं दुग्धपानं तत्र
९. सर्व शरीरं मुखस्याउँ तुम मूल्यं । २. सर्व मुखं नासिकायाः अर्ज तुल्यं मूल्यं वा लभते । नासिका कभते । ४. पूर्वोकेषु मध्ये नेत्रे उष्टे । ५. चम्पकवल्लरी लोभानवालके । ६. निम्नभूगामिनी । ७ नदीं । ८. अग्रभाग ९. कुत्तस्य ।