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सप्तम आश्वासः
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रिप्रियाचार: प्रियं समयं नित्यं परहिते रतः ॥ १०९ ॥ केवतिषु देवषसंतपस्सु च । अवबाधवाञ्जन्तुर्भवेद्दर्शनमोहवान् ॥ ११० ॥ मोक्षमार्ग स्वयं जानन्नपि यो न भाषते । मवापह्नव मात्सयें: स स्यादावरणढयो । १११ ।। मन्त्रभेदः परीवाद: * पेशून्यं फूटलेखनम् । घासाक्षिपवोक्तिश्च सत्यस्यते विघातकाः ||११२ ॥ परस्त्रीराज" विद्विष्टलोक 'विद्विष्टसंधयाम् । "अनायकसमारम्भा न कथं कथयेयुः ॥ ११३ ॥ असत्यं सत्यगं विवित्सत्यमपत्यगम् । सत्य सत्यं पुनः किमिवसत्यासत्यमेव च ॥ ११४ ॥
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अस्येदमैप सरयमपि किंचित्सत्यमेव यथान्धांसि" रन्धयति पयति वाससीति ॥ सत्यमप्यस किविद्ययामासत मे दिवसे तथेदं वेपमित्यास्थाय १२ मासतमे संवत्सरतमे वा दिवसे दवातोति । सत्यसत्यं किंचिद्यद्वस्तु प्रदेश कालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तथैवा विसंवाया । असत्यासत्यं किंचित्स्वस्यासत्संगिरते १० फल्मे बास्यामोति ।
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आती हो या अपने ऊपर भयानक दुनियार आपत्तियाँ आती हों ॥ १०८ ॥ सत्यवादी मानव को सदा प्यारी प्रकृति वाला, प्रिय आचरण वाला, प्रिय करने वाला, प्रिय भाषण करने वाला एवं सदा परोपकार करने में तत्पर होकर सदा दूसरों से द्रोह न करने वाली बुद्धिवाला ( दयालु) होना चाहिए || १०९ ॥ जो प्राणी केवली, द्रादशाङ्ग शास्त्र, मुनिसंघ, देव, धर्म (अहिंसा लक्षण ) व तग में गैरमौजूद दोषों का आरोपण करता है, या इनकी निन्दा करता है, वह मिध्यादृष्टि है, अर्थात् उसे दर्शनमोहनीय कर्म का मानव होता है ।। ११० ।। जो विद्वान् पुरुष मोक्ष के मार्ग को स्वयं जानता हुआ भी अपने ज्ञान का घमण्ड करने से, ज्ञान को छिपाने से, मात्सर्यभाव से – ईर्ष्या से ( मेरे सिवाय दूसरा कोई न जानने पावे ऐसी ईर्ष्या के कारण ) मोक्ष मार्ग के इच्छुक दूसरे मानव को नहीं बताता, वह ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का बन्ध करता है ।। १११ ॥ दूसरे के मन को बात जानकर उसे दूसरों पर प्रकट कर देना, असम्बद्ध भाषण करना अथवा झूठा उपदेश देना, चुगली करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखाना और झूठी गवाही देना ये पांच दुर्गुण सत्यव्रत के धातक हैं, अर्थात् सत्यव्रत के पाँच अतिचार है ।। ११२ ।। विद्वान् पुरुष को परस्त्री कथा, राज-विरुद्ध कथा व लोक विरुद्ध कथा का श्याग करते हुए निरर्थक, नायक-रहित व कपोलकल्पित कथा नहीं कहनी चाहिए ॥ ११३ ॥ वचन चार प्रकार का होता है - १. असत्य-सत्य, २. सत्यासत्य, ३. सत्यसत्य व ४. असत्यासत्य ॥ ११४ ॥
इस लोक का यह अभिप्राय है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है। जैसे 'यह भात पकाता है' या 'वस्त्र बुनता है।' यहाँ पर पकाने योग्य चावलों में भात शब्द का प्रयोग किया गया है एवं वस्त्र-निर्माण योग्य तन्तुओं में वस्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए उक्त वाक्यों में असत्यता होते हुए भी सत्यता है । अत: असत्य सत्य वचन [ लोक व्यवहार के अनुकूल ] है ।
इसी तरह कुछ सत्यवचन ऐसे होते हैं, जिनमें काल का व्यवधान हो जाने से असत्यता का मिश्रण होता है । जैसे कोई व्यक्ति किसी से कहता है, कि 'मैं आपको अमुक वस्तु पन्द्रह दिन में दूँगा ।' ऐसी प्रतिज्ञा करके वह एक महीना व एक वर्ष में उसे प्रतिज्ञात वस्तु देता है, इसे सत्यासत्य वचन जानना चाहिए। क्योंकि
* 'स्मादानृशंस्यधीनित्यं इति क० च० । १. पराद्रोहबुद्धिः दयासहितः । २. निन्दापरः । ३. मिध्यादृष्टिः । ४. बसछालापः । ५. राजविरुद्धां । ६. लोकविरुद्धां । ७. फल्गुकयां नायकरहितां कपोलकल्पिताम् । ८. श्लोकस्य । ९. रहस्यं - अयमर्थः । १०. 'ओदन' दि० ख०, पं० तु अन्धांसि मन्नानि । ११. वस्त्राणि । १२. प्रतिज्ञाय । १३. अभिय्यादादः । १४. कथयति सम् प्रतिज्ञाया' टि० ख०, 'प्रतिज्ञापति' इति टि० च० ।