Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम आश्वासः
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मतीव मया विभूतोत्पथ 'वेपथुस्तिमितमवेक्ष्य ब्रह्माक्षेपम् 'आ: 3 सोपायिनामपाङ्क्तेय" वंश्रेय, विश्वासधातक, पातकप्रय, धोत्रियकितव, दुराचार, प्रवतितमुत्नरत्नापहार, कुशिककुलपांसन" कानुष्ठानसदन, साघु जनमनः शकुनिबन्धनायातमुतन्त्री' जालमिव खलु तवेयं यज्ञोपवीतम् । असदाचारावधिक १० देववधिक समं रामदुर्गतिक "
मसाविवानाथ "विश्व भोज समिन्धन १४, अकृत्य संस्थायामात्य, जरायमवृतिकोपपत्तिक किमात्मनो न पश्यसि "वमंतरस्वमिवातिप्रवृद्ध विधोचात्यन्मायशिथिलता प्रभातप्रदीपिकामिवातास जीवितरविमङ्गचछवि २५ येणाद्यापि वयोधसि वयसि वर्तमान इव चेष्टसे । तविवानों यदि घनाभिबारघोरतेनसि विश्वदसि निक्षिप्यते, तदा विरोपचितदुराचारहस्य तवाधिरदुःखामिपरिग्रहोऽनुग्रह इव ।
ततो द्विजापस, कथाविस्वयेवमतिदुर्गन्धगोवं रोद्गवितमध्याशयं "वलोत्फुल्लल्लामा मल्लानां सहित
लाजिर त्रयमशितव्यम् नो चेवशराव मर्यस्वापहारः ।' प्रणाशाघ
किये हुए हैं, जो पूर्व में स्वभावतः सुवर्ण की मूर्ति- सरीखा कान्ति-युक्त था, परन्तु महान् दुस्साहस-युक्त कर्म करने से वह लोहे की मूर्ति-सरीखे शरीर-युक्त मालूम पड़ता है, जिसका मन प्रचुर उन्मार्ग (कुपथ ) में गमन करने से भग्न हो रहा था - - चूर-चूर हो रहा था और जो विशेष भय से उत्पन्न हुए बेमर्याद कम्पन से प्रस् दिन ( अत्यधिक पसीना -युक्त ) था, तब उसने विशेष तिरस्कार पूर्वक कहा - 'बड़ा खेद है, है जाह्मणों के मध्य पक्ति-रहित ! अर्थात् - हे ग्राह्मण श्रेणी में रखने के अयोग्य ( जाति से बहिष्कृत ) ! निर्भाग्य ! हे विश्वासघातक व पातकों की उत्पत्ति स्थान ! हे ब्राह्मण धूर्त ! दुराचारी ! नवीन रत्नों का अपहरण करनेवाले ! हे ब्राह्मण वंश दूषण ! हे बगुला सरीखी कुटिलता के स्थान ! निस्सन्देह तेरा यह यज्ञोपवीत शिष्ट पुरुषों के मनरूपी पक्षियों के बन्धन के लिए बृहत् तालों का जाल सरीखा है। हे पापाचार को चरम सीमावाले ! वेदरूपी कावड़ी के धारक ( वेदों के भारवाहक ) ! प्रशस्त धर्मस्थान में मलिनता उत्पन्न करने के लिये अग्नि के ईंधन ! हे कुकर्म के गृह ! हे निकृष्ट ( अधम ) मंत्री ! हे वृद्धावस्था रूपो यमदूती के आदर करने में तत्पर ! और हे जार !
क्या तुम विशेष बढ़ी हुई वृद्धावस्थारूपी प्रचण्ड वायु द्वारा उत्पन्न हुईं घातक शिथिलतावाली, भोजपत्र - सी शारीरिक शिथिलतावाली और तेज हवा के चलने से वुझने के उन्मुख हुए प्रभातकालीन दीपकसरीखी व जिसमें जीवनरूपी सूर्य का अस्त होना निकटवर्ती है, ऐसी शरीर की खाल को नहीं देखते हो ? जिससे अम भी ऐसी चेष्टाएँ करते हो - मानों तुम युवा हो । अतः इस समय यदि तु प्रचुर घृत डालने से भयानक . तेजवाली — धधकती हुई अग्नि में फेंक दिया जाय तो चिरकाल से संचित किये हुए पाप को स्वीकार करनेवाले तेरा अनुग्रह जैसा होगा. क्योंकि तुझे अग्नि में फेंकना तत्काल दुःख देने वाला है । इसलिए हे निकृष्ट ब्राह्मण ! या तो तुझे विशेष दुर्गन्धित गोबर से भरे हुए मध्यदेश वाले तीन सकोरों परिमाण गोबर खाना चाहिए । यदि ऐसा नहीं कर सकता तो प्रचुर बल से फूले हुए गालों वाले पहलवानों के नेतोस कोहनियों के प्रहार १२. कम्पेना प्रवेदितं । ३. खेदे । ४. सोमपायिनो ब्राह्मणाः । ५. पक्तिरहित । ६. निर्भाग्य । ७. ब्राह्मण कुलरूपण । ८. विनायें । ९. दवरकस्य तांतं मनुजाल । १०. मर्याइ । ११. वेदानुष्ठानरत १२. कृष्णत्व । १३. अग्नेः । १४. इन्धन । १५. गृह । १६. निकृष्ट मन्त्रिन् ! १७. जब यमदूती, उपपत्तिकः बदरपरः । १८. जार। १९. भूर्जतपत्रवत् शिथिलशरीरखां । २०. जरा एवं वाश्या २१. कायखल्ला । २२. यौवने हव । २३. घृत । २४. अग्नी । २५ अथवा २६ भृतमध्यप्रदेां । २७. भाजन - भाणा दि० ख०, पं० तु. 'शालाबिरं शरादे' शरावं दि० ब० । २८. बहुलवल । २९. अवहृत्य — कोणी ।