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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
बन्ध 'तन्त्रात कलत्रान्मणीनुरप्रणीय
राजः समर्पयामास स राजाऽहूतांशी स्वकीयरत्नराशी तानि संकीर्य कार्य लक्ष्मी कल्पलता विकासनन्दनं वंदेहिकनन्यनम्', 'अहो वणिक्लनय यान्यत्र रत्ननिचये तव रत्नानि सति तानि त्वं विचिप गृहाण' इत्यभाणीत् । भद्रमित्रः 'चिरत्राय' नतु विष्टयां वर्षेऽम्' इति ममस्यभिनिविश्म " 'याधिपति विशां पतिः' इत्युपविश्य विसृश्य च तस्यां माणिक्पु निजान्येव मनाविलम्बितपरिचयचिरत्नानि । २ रत्नानि समग्रहीत् ।
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ततः स नरवरः सपरिवारः प्रकामं विस्मितमतिः 'वणिक्पते, त्वमेवात्रान्वर्थतः सत्यघोषः, स्थमेव च परमनिःस्पृहमनीष:, यत्तव चेतसि वचसि न मनागप्यन्ययाभावः समस्ति' इति प्रतीतिभिः पारितोषिक प्रदानपुरःसरप्रकृतिभिस्तत्तपछिको पश्चितिवसतिभिश्व भणितिभिस्तम खिलबह्य ४ स्तम्बस्ति 'भीविजृम्भमाणगुणगणस्तोत्रं भवमित्रं कथंकारं भइलाघपामास । पुनरदूराशिवताति" श्रीभूति निखिललोक" "लपमालवा लमूलकौलीनता ललाध्ययशाखिनं म्युकआन्दनं निसर्गेण हरिगीसमागमपि महासा सानुष्ठानात्लू ' 'मसमानकाय मनप स्फुटन / स्वनित २३. जो कि सैकड़ों उन उन चिह्नों कङ्कण आदि के ज्ञापन की निरन्तर प्रवृत्ति से परवश हुई है, उक्त वणिक् के सात रत्न मंगवाकर राजा के लिए समर्पण कर दिये ।
राजा ने अदभुत किरणों वाली अपनी रत्न - राधि में उन्हें मिलाकर समीपवर्ती लक्ष्मीरूपी कल्पलता की क्रीड़ा के लिये नन्दनवन सरीखे उस वैश्यपुत्र को बुलाकर कहा - 'वणिक्पुत्र ! इस रत्नसमूह के मध्य में जो रत्न तुम्हारे हों, उन्हें जानकर ले लो।'
'चिरकाल के पश्चात् उत्पन्न हुए पुण्य से में बढ़ रहा हूँ' ऐसा मन में अभिप्राय करके 'भद्रमित्र' ने कहा - 'राजा सा० जैसी आज्ञा देते है ।'
पश्चात् उसने उस रत्न-समूह के मध्य में से अपने ऐसे सात रत्न विचार कर ग्रहण कर लिए, जिनमें अल्प विलम्ब वाली जानकारी के कारण काल-क्षेप ( कुछ समय का यापन ) वर्तमान था ।
यह देखकर राजा सकुटम्ब विशेष आश्चर्यान्वित बुद्धि वाला होकर बोला- ' है वणिक पति ! तुम हो लोक में यथार्थ सत्यघोष हो, तुम ही विशेष वाञ्छा-रहित बुद्धिमान हो, क्योंकि तुम्हारे मन वचन में जरा-सो भी लम्पटता या छलखित्ता नहीं है।' राजा ने इस प्रकार के पारितोषिक पूर्वक धन-प्रदान स्वभाव वाले विश्वासों द्वारा और तत्काल में उचित सम्मान के स्थानीभूत वचनों द्वारा भद्रमित्र की अत्यधिक प्रशंसा की, जिसके गुण-समूह को स्तुति समस्त ब्रह्माण्ड के हृदय में विस्तृत हो रही है,
जब राजा ने श्रीभूति को ऐसा देखा, जो कि समीपवर्ती अमङ्गल वाला है, जो कि समस्त लोक की मुखरूपी क्यारी में स्थित हुई जड़वाली लोक-निन्दारूप लता के आश्रय के लिए वृक्ष सरीखा है, जो नोचा मुख
१. संतत्या प्रवर्तमानपरवशात् । २. आलोय । ३. किरणे । ४. मिश्रकृते । ५. 'कोड' टि स० 'देवोद्यानं' ६ वैश्वपुत्रं । ७. रत्न-समूहमध्ये ८. विराय ॥ ९. ममुरजातेन समूहः । १२. मनाग्विलम्बिनपरिषदेत चिरलः कालयेषु उचितजालाभिः टि० स० पं० तु उपथिकमुचितम् । १४. त्रह्माण्ड ।
टि० प्र० । पञ्जिकायां तु नन्दनं देवोद्यानं । पुन १०. अभिप्रायं कृत्वा । ११. पुञ्जः रस्नेषु तानि चिरत्नानि । १३. ततस्मात्तदाकाले
१५. हृदयं । १६. समीपा मंगलं । १७. मुख । १८ जनापवादः टि० स० पं० तु रपवादः । १९ । २०. स्वर्णप्रतिमा । २९. लोहप्रतिमा । २२. उन्मार्ग । २३. हृदयं ।