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यशस्तिवक चम्पूकाव्यै
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तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोकयात्रात्रये स्थिता । सा मिथ्यापि न गीमिया था गुर्वादिप्रसाविनी ।। ११५ ॥ नस्यादात्मनात्मानं न परं परिवारयेत् । न सतोगुणा हिस्यान्नासतः स्वस्थ वर्णयेत् ॥ ११६॥ तया "कुर्वन्प्रजायेत नीचगोत्रोचितः पुमान् । उच्चैर्गोत्र मघाप्नोति विपरोतकृतेः कृलो ॥११७॥३ यत्परस्य प्रियं कुर्यादात्मनस्तप्रियं हि तत् । अतः किमिति लोकोऽयं पराप्रिय परायणः ॥ ११८ ॥ यथा यथा परेतच्चेती वितनुते तमः । तथा तथारमनाडीषु तमोधारा निषिञ्चति ।। ११९ ॥ बोषतोर्यं गुणद्मोमैः संगतॄणि शरीरिणाम् । भवन्ति वित्तवासांसि गुरूणि च लघूनि च ॥ १२०॥ सत्यवाय सतरसम्म४यद्विजः सिद्धि समश्नुते । याणी चास्य भवेन्मान्या यत्र यत्रोपजायते ।। १२१ ।। तह" " याभाषामनीषितः । जिह्वाच्छेयमवाप्नोति परत्र च गतिक्षतिम् ॥१२२॥
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यहाँ पर वस्तु के देने में विरोध न होने के कारण सत्यता है और प्रतिज्ञा किये हुए काल के उल्लङ्घन हो जाने से असत्यता है । जो वस्तु जिस देश में, जिस काल में, जिस आकार में और जिस प्रमाण में जानी है, उसको उसी रूप से सत्य कहना सत्य सत्य है जो वस्तु अपने पास नहीं है, उसके लिए ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि में तुम्हें सबेरे दूँगा परन्तु देता नहीं है। इसे असत्य-असत्य समझना चाहिए ।
इनमें से नौ असत्य-असत्य वचन को कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि लोक व्यवहार शेष तीन प्रकार के वचनों पर ही स्थित है। इसी प्रकार जो वाणी गुरु आदि हितैषियों को प्रमुदित करनेवाली है, वह मिथ्या होने पर भी मिध्या नहीं समझी जाती ।। ११५ ।। सत्यवादी को अपनी प्रशंसा न करते हुए दूसरों को निन्दा नहीं करनी चाहिए। उसे दूसरों में विद्यमान गुणों का घात ( लोप) नहीं करना चाहिए। और अपने अविद्यमान गुणों की नहीं कहना चाहिए कि मेरे में ये गुण हैं ।। ११६ || परनिन्दा, आत्मप्रशंसा व दूसरों के प्रशस्त गुणों का लोप करनेवाला मानव नीच गोत्र का बंध करता है और जब धार्मिक पुरुष उससे विपरीत करता है। अर्थात् अपनी निन्दा और दूसरों की प्रशंसा करता है तथा दूसरों में गुण न होने पर भी उनका वर्णन करता है तथा अपने में गुण होते हुए भी उनका कथन नहीं करता तब उच्चगोष का बघ करता है ।। ११७ ॥ जो व्यक्ति दूसरों का हित करने में तत्पर रहता है, वह अपना हो हित करता है, फिर भी न जाने क्यों यह लोक-संसार दूसरों का अहित करने में तत्पर रहता है ? ।। ११८ ।। जिस जिस प्रकार से यह विकृत मनोवृत्ति दूसरे प्राणियों में अज्ञानरूप अन्धकार का प्रसार करती है, उस उस प्रकार से वह अपनी धमनियों-- नाड़ियों में अज्ञानरूप अन्यकार की बारा को प्रवाहित करता है । अभिप्राय यह है कि दूसरों का अहित करने से अपना हो अहित होता है || १२५९॥ [ लोक में ] प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र जब दोषरूपी जल में डाले जाते हैं तो आई होने से गुरु ( वजनदार व पक्षान्तर में पापी ) हो जाते हैं और जब वे गुणरूपी गर्मी में फैलाये जाते हैं तो सूख जाने के कारण लघु ( हल्के व पक्षान्तर में पुष्यशाली ) हो हो जाते हैं ।
निष्कर्ष - अतः नैतिक पुरुष को अपना मनरूपों वस्त्र सदा सम्यग्ज्ञानादि प्रशस्त गुणरूप गर्मी द्वारा लघु ( हल्का पुण्यशाली ) करते रहना चाहिए ।। १२० ।।
सत्यवादी पुरुष सत्य के प्रभाव से वचन-सिद्धि प्राप्त करता है । उसको वाणी जिस-जिस विषय में
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१. असत्यासत्यं । २. व्यवहार ३. निन्दयेत् । ४. विद्यमानान् । ५. परात्मनित्वाप्रशंसां कुर्वाणः । तद्विपर्ययो नीचेर्वृत्तिः । ७. अतितत्परः । ८. मनः । ९. जर्मनो वस्त्राणि आर्द्राोभवन्ति । १०. संबंधीनि । ११. तुष्णमोह । १२. सुगतिविनायां ।