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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पणिक परिषत्प्रवणरूप निःशेषशास्त्रप्रवीणान्तःकरणस्य निसर्गादेव निखिलपरिजनालापन सहम' सवाचारशुक्लस्य विनेयजनमनः कुवलयानविकथावतारामृतमूर्तः सुकीलेंर्धन की पुरोपार्जितं सुकृतं कथयितुमर्हसि । अगणाम् — श्रेष्ठिन्, श्रूयताम् । तत्संबन्धसतं पूर्वोक्तं वृत्तान्तमत्रकयत् — या चार पूर्वभवनिकटा घण्टा वधूटी सा कृतनिवाना वनसि* प्रवेशादियं संप्रति श्रीमतिः संजाता। यश्च स मोनः स कालक्रमेण व्यतिक्रम्य पूर्व पर्यायपर्वेय मनसेनाभूत् । अतोऽय महाभागस्येक दिवसाऽहं साफलमेतद्विजृम्भते । धन की तिरेतद्वचत्र 'पवित्रोत्रर्मा । तथा श्रमतिरहसेना व पुराभवं भयं संभाल्यो मूल्य तमःसंतानतरनिवेशमिय केशपाशं तस्यंत्र "दोषज्ञस्यान्ति के यथायोग्यता विकल्पं तपःकल्पमादाय जिनमा गजितेनाचरितेन विरायाराध्य रत्नत्रयं विधाय व विधिवन्निरजन्य मनोवनं प्रायोपवेशनम् । तव मनीतिः सर्वार्थसिद्धिसाधनकीतिर्मनव । श्रीमतिरनङ्गसेनर च १° कल्पन्त र संयोज्यं देवसाय' 'मभजत् ।
भवति चात्र इलोकः सर्वार्थः
पकृत्व: 13 किकस्य मत्स्यस्याहिसनापुरा । अभूत्पश्वापवतोय नकीतिः पतिः श्रियः ।। ९४ ।।
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कामदेव सरीला विशेष प्यारा है। इसलिए पूज्यवर ! आप ऐसे धनकीर्ति की पूर्वजन्म में संनय किये हुए पुण्य की कथा कहिए, जो कि वणिक परिषत् में नम्र या अनुरक्त है । जिसका मन समस्त शास्त्रों में निपुण है । जो समस्त आश्रित जनों के साथ वार्तालाप करने में मधुर है । जो सदाचार से शुभ है । एवं जिसका haranrrent चन्द्रमा शिष्यजनों के मनरूपी कुवलय ( चन्द्रविकासी कमल) को प्रमुदित – विकसित करने वाला है और जो प्रशस्त कीर्तिमान है ।
मुनिराज ने इसके पूर्वजन्म की कथा कह सुनाई ।
जो पूर्वजन्म में समीप रहने वाली इसको घण्टा नामकी स्त्री यो, वह निदान बंध करके अग्नि में जल मरी थी, वह इस जन्म में इसकी प्रिया श्रीमती हुई है और जो मछलो थो, जिसे मृगसेन ने जल में जीवित छोड़ दिया था, वह कालक्रम से पूर्वपर्या छोड़कर दूसरो पर्याय धारण कर अनङ्गसेना हुई है | अतः एक दिन हिंसा न करने का फल इस भाग्यशाली को प्राप्त हुआ है ।
धनकीर्ति ने उक्त आचार्य के वचनों से अपना श्रोत्रमार्ग पवित्र किया। इसकी प्रिया श्रोमतो ने और अनङ्ग सेना नामको वेश्या ने अपना पूर्वभव सुनकर अन्धकार समूहरूा वृक्ष के प्रवेश परीखे कंश - पाशों का लुञ्चन करके उसी विद्वान आचार्य के समीप अपनी योग्यतानुसार दीक्षा ग्रहण की ओर जैन मार्ग के अनुसार चिरकाल तक रत्नत्रय का आराधन किया । और मनोवृत्ति को निर्विघ्नतापूर्वक समाधिमरण किया। धनकीर्ति सर्वार्थ सिद्धिविमान को प्राप्त करने में कोर्तिमान हुआ और श्रीमती ओर अनङ्गसेना भी स्वर्गलोक में देव हुए
इस कथा के विषय में समस्त विषय को बतलाने वाला एक श्लोक है, जिसका भाव यह हैनिस्सन्देह वनकीति, जिसने पूर्वजन्म में एक मछली की पाँच धार रक्षा की थी, जिससे वह पांच भयानक आपत्तियाँ पार करके लक्ष्मी का स्वामी हुआ ।। ९४ ।।
१. वणिक् । २. मधुरस्य । * इदं पदं मु० प्रती नास्ति, किन्तु ३० लि० क० प्रतिद्धः संकलित - सम्पादक । ३. चन्द्रस्य । ४. अग्नी, 'दमनाश्चित्रभानुतनुनपात् । ५ पर्वप्रस्तावे । ६ वत्रयं वचनं । ७. 'विदुषः' इति टि० ०, 'दोपनः अतीन्द्रियज्ञ:' इति पञ्जिकाया तथा टि० च० । ८. निर्विघ्नं । ९. पादोपमानमरणं संन्यासविधि । १०. स्वर्गलोक ११. 'देवत्वं' टि० ज०, 'वायुज्यं साम्यं' इति पं० । १२. पंचत्रारात् ।