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सप्तम भाश्वासः
इयुपासकाध्ययने अहिंसाफलावलोकनो नाम पशः कल्पः ।
तस्य परस्वस्य ग्रहणं स्तेयमुच्यते । सर्वभोग्यासदन्यत्र भावः सोयणाः ॥ ९५ ॥ ज्ञातीनामत्यये वसमतमपि संगतम् । जीवतां तु निवेशेन्द्र तक्षर्ति रसोऽन्यथा ॥ ९६ ॥
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शाभिनिवेशन" प्रवृत्तियं जायते । तत्सर्वं रायि विशेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रये ।। ९७ ।। " रिक्थं "निधिनिधानोयं न दराजोऽन्यस्य युज्यते । यत्स्वस्या" "स्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ।। ९८२१ आत्माजितमपि यं द्वपरायाम्यथा भवेत् । निजान्वयावसोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ॥ ९९ ॥ मन्दिरे पक्षिरे तीरे कान्तारे धरणीधरे । तान्यदीयमावेयं स्वापतेयं व साश्रयेः ॥ १०० ॥
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न्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म "ततो ग्रहः । विप्रहे संप्रहोऽयंस्या "सोयस्यैते निवर्तकाः ९ ॥१०१॥३ इस प्रकार उपासकाध्ययन में अहिंसा का फल बतलानेवाला यह छब्बीसवां कल्प समाप्त हुआ । अब चोरी न करने का उपदेश करते हैं
अचौर्याव्रत
सर्वसाधारण के भोगने योग्य जल व तृण आदि पदार्थों को छोड़कर क्रोधादि कषाय से, विना दिया हुआ दूसरे का घन ग्रहण करना चोरी कही जाती है ॥ ९५ ॥ कुटुम्बियों की मृत्यु हो जाने पर उनका धन बिना दिया हुआ भी ग्रहण किया जा सकता है । परन्तु जीवित कुटुम्बियों का घन उनकी आज्ञा लेकर हो ग्रहण किया जा सकता है । अन्यथा ( उनकी जीवित अवस्था में उनकी आज्ञा के बिना उनका धन ग्रहण कर लेने पर ) अचीर्यात्त की क्षति होती है || १६ || अपने या दूसरों के धन में जब आर्त व रौद्र अभिप्राय से ( चोरी के अभिप्राय से ) प्रवृत्ति की जाती हैं, तो वह सब चोरो हो समझनी चाहिए ॥ ९७ ॥ निधि ( भूमि आदि में गड़ा हुआ जो खजाना व्यय करने पर भी नष्ट नहीं होता) और विधान ( जो व्यय करने पर नष्ट हो जाता है - अल्प खजाना ) से उत्पन्न हुआ बिना स्वामी का चन राजा को छोड़कर दूसरे का नहीं है; क्योंकि लोक में जिस धन का कोई स्वामी नहीं है, उसका स्वामी राजा होता है। अभिप्राय यह है कि नदी, गुफा व खामिनादि में पड़ा हुआ धन राजा के बिना दूसरे का नहीं है, क्योंकि स्वामों से हीन हुए धन का राजा स्वामी होता है || ९८ || अपने द्वारा उद्यम आदि से उपार्जन किया हुआ घन भी यदि संदिग्ध है अर्थात् (यह मेरा है ? या दूसरे का ? ) तो उसका ग्रहण करना भी चोरी है, अतः व्रती पुरुष को अपने कुटुम्ब के सिवाय दूसरों का धन ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ९९ ॥ अचौर्याव्रतो पुरुष को मन्दिर, मार्ग, जल, बन व पर्वत आदि में पड़ा हुआ दूसरों का धन नहीं ग्रहण करना चाहिए ।। १०० ।।
नाप-तोलने के बाँट तराजू आदि को कमतो बढ़ती रखना, चोरी करने का उपाय बतलाना, चोर से लाई हुई वस्तु को खरीदना, राज्य विरुद्ध कार्य करना व पदार्थों को संग्रह करना ये अचर्याणुव्रत के
१. घनस्य । २. विनाशे मरणे सति । ३ आदेशेन ग्राह्यं ४ विनाशः । ५. आतंरोद्राभिप्रायेण प्रवर्तनं । ६. धने । निधिः । ९. यद् व्ययकृतं सत् क्षयं याति तन्निधानभल्पमित्यर्थः । १२. स्ववंशादन्यस्य वनं वर्जयेत् । १३. मार्ग । १४. काहीनाधिकये । १६. 'चौरार्थादानं' टि० ० 'चोरादानीतद्रव्यग्रहणं टि० च० । 'स्लेन प्रयोग तदहुतादान-विरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिक
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७. घनं ८. यो यकृतः क्षयं न याति स १०. द्रव्यस्य । ११. संपादाय सत्येहाय १५. चनुमोदनं । ★ ततः स्वेनात् । १७. राज्यविरुद्धे । १८. वस्तुनः पदार्थस्य । १९. अतौचाराः मानोन्मानप्रतिरूपकध्ययहारा:' मोक्षशास्त्र ० ७ सूत्र २७ ।