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समम आश्वासः
३२३ सह उभयेन' विशामाषिपरपपवेन योनितश्च । गुणपाल: किंवदन्तीपरम्परया अस्य कल्याणपरम्परामुपभुत्यकौशाम्बीदेशात्पद्यावती'पुरमागस्य अनेनाश्चर्येश्वर्य भाजा तुजा सह संजम्मे" ,
___ अचान्या सशलत्रपुत्रमित्रतन्त्रेण धनकोतिना दर्शनायागतयानङ्गसेनया बानुगतिनिष्ठो गुणपालभेष्ठी मतिश्रुतापषिमनःपर्ययविषयसम्राजमखिलमुनिमण्डलीराजे श्री यशोध्वजनामभाणं भगवन्तभिवन्ध साहुप्रमपमेषमपृष्टस्-'भगवन , कि नाम जन्मान्तरे धर्ममूतिना घनकोतिना सुतमुपाशितम्, येन बालकालेऽपि तानि तानि देवेकशारणप्रतीकाराणि व्यसनामि ग्पतिकान्तः, पेनास्मि लोकष्यतिरिक्तरमा रूपसंपन्नोऽभूत् । येनार भ्राधिय'. विभावसुप्रभासंभार इव देवानामप्यप्रतिहतमहाः १२ समबनि, येन वापरेषामपि तेषां तेषां मातापुरुषकक्षावपहाणां१४ गुणानां समवायोऽभवत् । तयारि.. निशाना , महायो मागमावस्या निकेतनमयदानकर्मणः५, क्षेत्र मैयिकायाः,१८ स्वप्नेऽपि न स्वजनस्यापनि मनो मातुः १९ कम्युरिव २० कामिनीलोकस्य । तदस्य भवन्त, उसकी लावण्य सम्पत्ति देखकर राजा को विशेष आश्चर्य हुआ। उसने उसके साथ अपनी राजकुमारी का विवाह कर दिया और उसे राजसेठ पद पर भी अधिष्ठित कर दिया। अर्थात्-इस प्रकार बनकीति विवाहोत्सव व श्रेष्ठिपदोत्सब इन दोनों उत्सदों से सुशोभित हुआ।
जब धनकोनि के पिता गुणपाल ने किंवदन्ती परम्परा (जन-साधारण की खबर) से अपने पुत्र धनकोति को कल्याण परम्परा सुनी तो वह कौशाम्बी से उज्जयिनी नगरी में आकर आश्चर्यजनक ऐश्वर्यशाली अपने पुत्र के साथ सम्मिलित हुआ।
एक बार स्त्री, पुत्र व मित्रादि से युक्त धनकोति पुत्र के साथ और दर्शन के लिए आई हुई अनङ्गसेना के साथ अनुगमन करने वाले गुणपाल सेठ ने मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यपज्ञान के चारो एवं समस्त मुनियों की मंडली में श्रेष्ठ श्री पशोध्वज आचार्य के लिए नमस्कार करके विशेष विनय पूर्वक पूछा'भगवन् ! इस धर्ममूर्ति धनकीर्ति ने पूर्वजन्म में ऐसा कौन-सा पुण्य संचय किया था ? जिसके कारण इसने बचपन में भी ऐसे भीषण दुःख नष्ट किये, जो कि इसके केवल भाग्य को शरण द्वारा दूर किये जा सकते थे। एवं जिससे यह इस जन्म में भी लोक से प्रचुर लक्ष्मी व लावण्य सम्पत्ति से सम्पन्न हुआ। जिसके प्रभाव से यह वैसा देवों द्वारा भी नए न किये जाने वाला तेजस्वी हुआ जैसे बहुल मेघपटल सम्बन्धी वच्चाग्नि का तेज
सी के द्वारा न न किये जानेवाले तेजवाला होता है। जिसके प्रभाव से यह पुराण-पुरुषोंतीर्थङ्करादि-के पक्ष के उन-उन गुणों के साथ निल्य संबंध करने वाला हुआ।
जैसे यह विद्वत्ता का आश्रय है, उदारता गुण का स्थान है । यह अवदान ( शत्रुओं का खंडन, सर्वपालन, सर्वप्रदान अथवा शुद्ध कर्म ) का स्थान है। यह समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव की उर्वरा भूमि है। इससे स्वप्न में भी कुटुम्बोजनों के मन में खेद या अपराध उत्पन्न नहीं हुआ एवं यह स्त्री-समूह के लिए १. एको विवाहोत्सवः द्वितीयः श्रेष्ठिपद 1 २. धनकीतः। ३. उज्जयिनी । ४. पुण। ५. सम्मिलितः ।
६. जन्मनि । ७. अधिक ! ८. 'साररूप' इति ग० । ९. श्रीः । १०. बहुल । ११. 'अनपटलसंघपी अग्नितेजः समूहृवत्' टि० स्था, "अभ्रियो वनाग्निः' इति पञ्जिकायां । १२, तेजः। १३. पुराणपुरुषः । १४. पदवथाना । १५-१६. 'विदान्यो विदग्धः' 'वदान्यस्स्यागी' इति पनिकायां, “विदग्धतायाः' टि च०, 'स्थानं वदान्यतायाः' इति ख. प्रती। 'वक्तृत्वस्य, बक्षान्यो बल्गुवागपि प्रियवादी । स्युर्वदान्यस्थ ललक्ष्यदानशीण्डा बहुपदे। वदति दीयतामिति पदान्यः वदेरान्यः । वदान्यो वष्णुशागपि' इति टि० ख०। १७. अवदानं शत्रुखंडन, सर्वपालनं सर्वप्रदान वा शुक्रर्म, टिन। 'अवदान साहस' इति । १८. 'मित्रत्वस्य' टि ख'मित्रयः व्यवहारवंदो तस्य भावो मैयिका' इति पं० ब दि० च । १९, 'विप्रिय अपराधः दि. खः । खेदः' इति दिलच एवं पक्षिकायामपि । २०, कामः ।