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after म्पूका
श्यावश्यामा कश्या मलरचयश्च जनकाय' इति समर्पितसमया समास
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कारतयो मोबकास्ते स्वकीयाय कान्ताय देयाः मरणसमया परिति सवनापानुससार ।
स्पधमीयान्ययविलोपाय
श्रीमतिः-- " यच्चोत्तमभक्ष्यं तत्प्रतोदपाय ताताप वितरीतष्यम्" इत्यवगत्याविशात सवित्रीचित्त कौटिल्या निःशस्यहुवया तानेत्यविपर्ययेनावभूषत् । विशाखा पतिशून्यमरण्यसामान्यमगारमाप्य परिवेष्य सुचिरं पुनः 'पुत्रि, किमन्यथा भवति महामुनिभाषितम् । केवलं तव वापेन १० मया मोत्यापनमा चरितम् । तचलमत्र बहुप्रलापेन कल्पनुमेण कल्पलतेय स्वमनेन देववयबेहरक्षा विधानेन षषेन १३ साधम्मकल्पमिन्द्रियैश्वर्थसुमनुभव' इति संभाविताशीर्वादा तमेकं मोदकमास्वाय पत्युः पथि ३ प्रतस्थे । एवं स्वयं विहितकुरोहितबशाहुपात्तामिलोकमा शशीकावस्ये १४ दशमी" तस्मिवशुरे श्वधूजने च सति स पुरातनवुभ्यम्माहात्म्यल्लङ्गितघोरघतिघ १४ पापप्रति विडीयमानसंपदेकवा तेन विश्वंभरेण क्षितीश्वरेण निरीक्षितः । तद्रूपसंपत्ती जात बहुविस्मयेन तनूजया
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पुत्री से कहा - 'पुत्री श्रीमति ! इन लड्डुओं में से कुन्द व कुमुद- पुष्प-सरीखी कान्ति वाले श्वेत लड्डू तो अपने पति को देना और धूसरित श्याम धान्य सरीखे श्याम लड्डू अपने पिता की देना' इतना संकेत करके निकटवर्ती भरणवालो सेठानी नदी में स्नान करने के लिए चली गई । इसके पश्चात् श्रीमती पुत्री ने ऐसा निश्चय fear for air खाने योग्य उत्तम लड्डू तो पूज्य पिताजी के लिए देना चाहिए ।'
श्रीमतिको माता के चित्त की कुटिलता का पता नहीं था और वह निष्कपट मन वाली थी, इसलिए उसने उन दोनों के लिए प्रस्तुत लड्डू उलट कर दे दिये । अर्थात् विषैले लड्डू अपने पिता के लिए और निर्विष लड्डू अपने पति के लिए खिला दिये । जिससे उसका पिता श्रीदत्त काल-कवलित हो गया ।
जब विशाखा स्नान करके आई तो उसका पति मर चुका था, इसलिए वह जंगल-सरोखे पति शून्य गृह में आकर बढ़ी देर तक रोई और बोली- 'पुत्रि | क्या महामुनि की वाणी मिथ्या होती है ?" केवल तुम्हारे पिता और मुझ वृद्धा ने अपने स्थिर बंदा को नष्ट करने के लिए इस कृत्या का उत्यापन किया है। इस लिए अब शोक करना व्यर्थ है । अतः अब कल्पवृक्ष के साथ कल्पलता सरीखी तु देव के द्वारा रक्षा किये हुए इस प्रति के साथ, कल्पकाल तक इन्द्रिय-सुख एवयं सुखों को भोगो ऐसा आशीर्वाद देकर उसने भो एक जहरीला लड्डू खा लिया और पति को अनुगामिनी गई - मर गई ।
जब धनकोति के सास ससुर स्वयं किये हुए दुरभिप्राय से पुत्र मरण से विशेष शोकाकुल होकर कालsafer हुए तब धनकीति पूर्वजन्म संबंधी पुण्य के माहात्म्य से भयानक विघ्नों वाली पांच विपत्तियों को उल्ल न करके दिनोंदिन उदित होनेवाली संपत्ति से सुशोभित हुआ । एक दिन 'विश्वंभर' राजा ने उसे देखा,
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१. 'श्याचः स्यात् कपिशः धूसरारुणाः' टि० ० 'श्यावः कर्दमः' इति पञ्जिकायां । २. मता - अभिप्राया । ३. स्नानाय । ४. यच्वो भव' इति क० ० च० प्रति टिप्पर्धा तु 'चोक्ष: सुन्दरगीतयोः शुसी । ५. पूज्याय 1 ६. देयं । ७. परिवेषयामास पते स्म । ८. आगत्य । ९. रोदनं कृत्वा । १०. पित्रा । ११. अथर्वणशे कृते सति मधात्मना कृत्या उत्पद्यते । १२. कान्तेन । १३. मृता इत्यर्थः । १४. उपात्ता बहुला पुत्रसरणशोकस्य अवस्था येन । १५. मृते सति । १६. विघ्नतः ।
*. कुरमा - अपने नाश के लिए की हुई मन्त्र-सिद्धि ।
सारांश यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य शत्रु का वध करने के उद्देश्य से मन्त्र विशेष सिद्ध करता है, जिससे मात्रु का वध करने के लिए एक पिशाब प्रकट होता है, परन्तु यदि शत्रु जप, होम या दानादि करने से विशेष बलिष्ठ होता है, तब वह पिशाच शत्रु को न मारकर उल्टा सन्ध-सिद्धि करने वाले को मार डालता है ।