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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
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विvिine सरितनिकटे परित्यज्य यथायथमश्वल्लीत् ।
तत्राप्यसौ पुरोपानितपुण्य भाषापमातृभिरि
एतद्वीक्षणाक्षरक्षीरस्तनीभिरान बोदीरितनिर्भर - भाध्वनिभिः " प्रचारायागताभिः कुण्डोनीभिजलो "तुभिरुपविषभाग." "उपदान्तरमागतेन तवकण ar गोपालजन अस्तावतंत्र सभा सिन्य शोकस्तबकसुन्दरे सरोजसुहृद्धि 10 सति विलोकितः । कथितश्च सकलगोष्ठ प्रयेष्ठाय ""बल्लव फुलवरिष्ठाय निज्ञाननापसितारविन्दाय गोविन्दाय । सोऽपि पुत्रप्रेम्णा प्रमोदगरिम्णा चानीय जनितहृदयानन्दायाः सुनवायाः समर्पितवान् । अकरोच्या स्थैविरामन्दिरस्य ११ धमकीतिरिति नाम । ततोऽसौ क्रमेण परिस्वशः कमलेश व युखमनमनः " पण्यता यो कुरवल्ल 'बीलो बना लिलाव लावण्यमकरन्द समन्धानव*कामन्द "मतिकान्तरूपायतनं यौवनमासादितः पुनरपि राज्याश्वगज्योपार्जन सज्जागमनेन तेन श्रीवत्तेन दृष्टः । पृष्टरच गोविन्दस्तदवाप्तिपश्वम् । श्रीदत्तः 'गोविन्द मदीये सबने किमपि महत्कार्यमात्मनस्य २० निषेधमस्ति । सद हृदय दया से द्रवीभूत हो गया । अतः उसने उसे स्थूल वृक्षों से व्याप्त नदी के तट के समीप छोड़कर पूर्व की तरह वहाँ से शीघ्र चल दिया ।
इसके पूर्वोपाजित पुण्य के प्रभाव से वहां पर भी ऐसी गोकुल की गायों से इसका निकटवर्ती स्थान रोका गया, जो ऐसी मालूम पड़ती थीं— मानों इसकी घाएँ ही हैं - इस बच्चे को देखने से जिनके मनों से दूध झर रहा था । जिन्होंने आनन्द से विशेष माने की ध्वनि प्रकट की थी। जो घास चरने के लिए वहाँ आई हुई थीं और जिनके थन प्रचुर मात्रा में दूध से भरे होने के कारण कुण्ड सरीखे थे ।
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जब सन्ध्या के समय अशोक वृक्ष के गुच्छा सरीखा मनोज्ञ सूर्य अस्ताचल पर मुकुट- सरीखा शोभायमान हो रहा था, तब इसके पास आए हुए गोरक्षा में चतुर वालों ने इसे देखा और समस्त गोकुल - गोशाला के स्वामी व वालों के वंश में श्रेष्ठ एवं अपनी मुख- कान्ति द्वारा कमलां की कान्ति को तिरस्कृत करने वाले 'गोविन्द' नामके स्वामी से कहा । पुत्र स्नेह से व आनन्द से महान् गोविन्द भी उस बच्चे को घर ले आया और उसने हृदय में उत्पन्न हुए आनन्द वालो सुनन्दा नाम की प्रिया के लिए समर्पण कर दिया। लक्ष्मी के स्थान इस बालक का नाम 'धनकोति' खखा ।
इसके पश्चात् क्रम से बाल्यावस्था को छोड़कर श्रीपति सरीखे इसने ऐसी युवावस्था प्राप्त की, जिसमें युवक-जन के मन के ग्रहण करने में बेचने योग्य ( अर्धप्राय ) योवन से प्रमुदित हुई गोपियों की नेत्ररूपी भ्रमरश्रेणी द्वारा आस्वादन करने योग्य लावण्यरूपी पुष्परम पाया जाता है । जो प्रचुर सुख का काम ( मन्दिर ) है, अथवा पाठान्तर में पञ्जिकाकार के अभिप्राय से जिसमें प्रचुर सुख व कामदेव वर्तमान है और जो बेमर्याद खुबसूरती का स्थान है ।
एक दिन प्रचुर घी के व्यापार द्वारा धनोपार्जन की इच्छा से यहाँ आये हुए श्रीदत्त ने इसे देखकर गोविन्द से इसकी प्राप्ति के विषय में विस्तार से पूँछा और उससे कहा - 'गोविन्द ! मुझे अपने गृह पर अपने
१. आशु गतवान् दवल्ल आशुगम ने लुङि । २. धात्रीभिः । शिशु । ४. गोमतं । ५. तुणादनार्थ । ६. गोकुल । ७. समोष । ८. चपदान्तरं समीपं । 'भाग' ग० । ९. संध्यासमयं । १० र ११ वल्लवाः गोकुलिकाः । १२. त्रस्य । १३. लक्ष्मी गृहस्य । १४. हरिरिव । १५. मनोमये यदयं विक्रयमाणं अर्थमा तायव्यं । १६. गोपी । १७. आस्वाद्य । *. 'कामदं ( मन्दिर )' ख० । १८. कामन्दः कामः इति पञ्जिकायां । २०. मम पुत्रस्य महाबलस्य ।
१९. श्रीदत्तः प्राह ।