________________
३१०
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पयः पवनानीनां गुणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्यादजंतु' यत् ॥ ७८ ॥ ग्रामस्वामिस्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम् । गुणदोष विभागेऽत्र लोक एव यतो गुदः ॥ ७९ ॥ दर्पण का प्रभावाना द्वीन्द्रियादिविराटने । प्रायश्चित विधि कुर्याद्य थादोवं यथागमम् ॥ ८० ॥ प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चितं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चितं प्रचक्षते ॥ ८१ ॥ Betwasant न कृच्छ्रं धातुमर्हति । तस्माद्धताः प्राज्ञाः प्रायश्चितप्रदाः स्मृताः ॥ ८२ ॥ मनसः कर्मणा वाचा यष्कृतमुपाजितम् । मनसा कर्मणा वाचा तसबंध विहापयेत् ॥ ८३ ॥
1
अचिन्त्य शक्ति है उससे चौदह लोक जाने जाते हैं ।। ७७ ।। पृथिवीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक एवं घास आदि वनस्पत्तिकायिक इन पांच स्थावर - एकेन्द्रिय जीवों की विराधना उतनी ही करनी चाहिए, जितने से अपना प्रयोजन सिद्ध हो एवं जिस स्थान में दो इन्द्रिय-आदि सजीव नहीं हैं, उस स्थान से
पृथिवी द जल आदि अपने प्रयोजन के अनुसार ग्रहण करना चाहिए ॥ ७८ ॥ ग्राम-कार्य ( ग्राम सेवा आदि), स्वामि कार्य व निजी कार्यों ( कुटुम्ब संरक्षण व परोपकार आदि ) में लोकरीति के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। क्योंकि इन कार्यों के गुण-दोषों का पृथक-पृथक बोध कराने में लोक ही गुरु है। अर्थात् लोकिक कार्यों को लोकरीति के अनुसार ही करना चाहिए ।। ७२ ।।
प्रायश्चित्त का विधान
मद से अथवा कषाय से दो इन्द्रिय-आदि बस जीवों का घात हो जाने पर अपने दोष के अनुकूल प्रायश्चित शास्त्र का अनुसरण करके प्रायश्चित्त विधि करनी चाहिए ॥ ८० ॥ 'प्रायः' शब्द का अर्थ साधुलोक है और उसके मन को चित्त कहते हैं, अतः साधुलोक की मानसिक शुद्धि करनेवाले प्रशस्त कार्यो ( उपवासयदि तपों) को आचार्य प्रायश्चित्त कहते हैं ।
भावार्थ - प्रायश्चित्त करने से अपराधी जन की मानसिक शुद्धि होती है और दूसरे साधर्मी जनों का मन भी सन्तुष्ट हो जाता है । इसके ग्रहण करने से पुनः अकार्य ( असंयम ) में प्रवृत्ति नहीं होती और जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पालन भी होता है, इत्यादि अनेक लाभ होते है ॥ ८१ ॥
प्रायदिवस प्रदान का अधिकार
आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्ग श्रुत का धारक भी एक गुरु प्रायश्चित्त देने में समर्थ नहीं है; क्योंकि अकेला एक विद्वान्, देश व काल- आदि समस्त अवस्थाओं के विचार करने में समर्थ नहीं हो सकता | टिप्पणीकार ने भी लिखा है- 'आचार्य को गृहस्थ श्रावकों को प्रायश्चित्त देने के अवसर पर बहुत से विद्वानों को साक्षी करना चाहिए।' अतः आगम में बहुश्रुत अनेक विद्वान् प्रायश्चित्त देने के अधिकारी माने गए हैं। अर्थात् - आचार्य, साधुजनों आदि के लिए प्रायश्चित्त देने के अवसर पर देश व कालादि का विचार करने के लिए बहुश्रुत विद्वान् साधुओं को भी नियुक्त करे ॥ ८२ ॥
पाप के स्याग की अमोघ रामबाण औषधि
[ इस मानव ने ] अशुभ मन, वचन व काययोग द्वारा जो पाप-संचय किये हैं, उन्हें उसके विपरीत शुभ मन, वचन व काययोग द्वारा त्याग करना चाहिए |
१.
यत्र स्थाने श्रसाः न सन्ति तस्मात् स्थानाद् गृहीतव्यं । * 'स्नं' क०, 'कृच्छ्रं च० । ३. समयं प्रायश्चित्तं
२. किन्तु गृहिणां दंडदाने बहवः साक्षिण: कर्तव्याः ४. त्यजेत् ।
।