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सप्तम आश्वासः
ससंभ्रम' संपावितदीर्घप्रगामः प्रकामं प्रगलदेनाः समाहितमनाः 'साघुसमाजसप्तम,र समस्तमहामुनिजनोत्तम, वेगा। छुपपन्नपुण्यगृह्मभावोऽनुगृह्यता कस्यचिव्रतस्य प्रदानेनार्य मनः' इत्यभाषत । भगवान-ननु कथमस्य पयःपसङ्गस्येषः सर्वच शकुलिविनाशनिःशफाशययशस्य" बलपहणोपदेशे प्रवीणमन्सःकरणमभूत् । अस्ति हि लोके प्रवाः, न खल प्रायेण प्राणिनां प्रकृति शुमार ५ दिशा तिरपुस्मुनिः सम्यगवयुद्ध सवितरजीवितावधिस्तमेवमवाबोत्-'अहो शुभाशयायतन, मद्यतचाहनि यस्तवावावे वानाय मीनः समापतति स त्वया न प्रभापयितस्या। पायधात्मवत्तिधिययमामि न प्राप्नोषि तावसव तप्रियत्तिः१२ । अयं पुनः पञ्चतिवावमारपवित्री मन्त्र सर्वदा सुस्थि. तेन तुस्यितेन च त्वया स्यातम्यः' इति । मृगसेनः-'ययाविशति महमानस्तथास्तु' इत्यभिनिविष्य तां शवलि-४ नीमनुसृत्य जनिसमालोपोs कालक्षेपमतनुकरण बैसारिण मासाथ स्मृतततस्तस्य ८ अवसि"चिलाय २० चोरघोरों१ निवघ्याल्याशीत । पुनरपरावकाशे 3 सौरिणोप्रवेश तभवाबूरसरशर्मा समाचरितकर्मा समेवाषडक्षीण-४ मक्षीणायुषमवाप्यामुञ्चत । तदेयमेतस्मिन्ननगिळे पाटोनवरिष्ठे पञ्चकृस्यो लने विपनमग्ने मुच्यमाने सति, अरत
उस घोवर का हृदय निकट में पुण्य प्राप्त करने योग्य था, इसलिये उसने पापार्जन में सहायक जालआदि उपकरण-समूह दूर स्थान पर छोड़ दिये और आचार्य श्री के पास पहुंचा और उन्हें सादर साष्टाङ्ग नमस्कार किया, उस समय उसके पाप विशेषरूप से गल रहे थे और उसकी चित्तवृत्ति भो एकान थी।
फिर उसने कहा-'हे साधु-समाज में श्रेष्ठ और समस्त महामुनियों में उत्तम मुनिराज ! आज भाग्य से ही पुण्य-संचय का यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मेरे लिए कोई नत देकर अनुगृहीत कीजिए।'
यह सुनकर मुनिराज ने सोचा-'निस्सन्देह बगुला-सरीखे निरन्तर मछलियों का घात करने में निर्दयो चित्त वाले इस धीवर का मन वृत्त-ग्रहण के कहने में कैसे निपुण हुआ? निस्सन्देह लोक में ऐसी जनश्रुति है, कि प्रायः प्राणियों को प्रकृति ( स्वभाव' ) उत्तरकाल में होनेवाले हित-अहित के बिना नहीं पलटतो' यह सोचकर उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग कर उसे अल्पायु निश्चय करते हुए कहा-'हे शुभ मनोवृत्ति के आश्रय ! आज जो पहली मछली तुम्हारे जाल में फंस जाय, उसे तुम नहीं मारना और जब तक तुम्हें अपनी जीविका रूप मांस प्राप्त न हो, तब तक के लिए तुम्हारे मांस का त्याग है और यह पैतीस अक्षरों का पवित्र पंच नमस्कार मन्त्र है, इसका निरन्तर सुखी व दु:खी अवस्था में ध्यान करो।'
मृगसेन ने 'पूज्य की जो आज्ञा' ऐसा अभिप्राय करके व्रत ग्रहण कर लिए और निप्रा नदी पर पहुँच कर जाल डाल कर शीघ्र वृहत्काय ( बड़ी ) मछली पकड़ लो । उसने अपने मत को स्मरण करके पहचान के लिए उस मछली के कान में कपड़े की धज्जी वांधकर जल में जीवित छोड़ दिया । फिर निकट में सुख को प्राप्त होने वाले उसने दूसरे स्थान से नदी में जाल-विक्षेप-आदि कार्य किया। किन्तु वही मछली जाल में फिर आकर फंस गई, अतः उसने उसे फिर जीवित छोड़ दिया और जब वही मछलियों में श्रेष्ठ बृहत्कायवाली महामछलो उसके जाल में पांच बार फैसकर आपत्ति में फंसी तो भी उसने उसे जीवित जल में छोड़ दिया।
१. सादरं। २. हे मन!। ३. वकस्म। ४. मत्स्यविनागे। ५. निर्दयस्य । ६, उत्तरकाले । ७. समीप ।
८. प्रथमतः। ९. जाले । १०. न मारणीयः । ११. स्वकरमानीतं । १२. मांसस्य नियमः। १३. अभिप्राय कुस्वा । १४. सिना नदीं। १५. पी । १६. बहच्छरीरं । १७. मत्स्यं । १८, मत्स्यस्य । १२. कणें । २०. अभिज्ञामाय। २१. बस्नं। २२. त्यजति स्म । २३. स्थाने । २४. मरस्य ।