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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये 'मघादिस्वाचिगेहेषु पानमन्नं स नाचरेत् । तबमत्राविसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ।। २८ ।। कुर्वन्नप्रतिभिः साषं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र पर धन सरफलम् ।। २९ ।। दतिप्रायेषु' पानीयं स्नेहं च कुतुपाविषु" । व्रतस्यो वर्जलिय योषितश्चान तोचिताः ॥ ३० ॥
"जीवपोगाविशेषेण 'मयमेषाविकायक्त । मुन्ग माषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे अगुः ।। ३१ ।। ... सक्युक्त । तदाहमांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न या भासम् । यदन्निम्यो पक्षो वृक्षास्तु भवन्न वा निम्बः ।। ३२ ॥! .....
मद्यायिक का सेवन करने वालों से बचने का उपवेशमद्य, मांस ब मधु को भक्षण करने वालों के गृहों में कभी खान-पान नहीं करना चाहिए तथा उनके बर्तनों आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिए ।। २८ । नत न पालने वाले पुरुषों के साथ भोजनादि
रखने वाले मानव की इस लोक में निन्दा होती है और परलोक में भी उसे प्रशस्त फल महा मिलता अथात्-कटु फल भोगना
२९।। तो पुरुषको चाई की मरम का पानी, चमड़े के कुप्पों में रक्खा हुआ घी व तेल का उपयोग सदा छोड़ते हुए रजःस्वला स्त्रियों का संसर्ग (छुना ) नहीं करना चाहिए ।। ३०॥
कुछ लोगों ने कहा है कि मुंग व उड़द-आदि एकेन्द्रिय जीवों का शरीर भी मांस है, क्योंकि यह जीव का शरीर है, जैसे कैट व मेढा-आदि का शरीर । अर्थात्-जैसे ऊंट व मेड़ा आदि स जीवों का शरीर जीव-शरीर होने से मांस है वैसे ही मूग व उड़द-आदि धान्यों का शरीर भी जीव-शरीर होने से मांस है, क्योंकि जहाँजहाँ जोव-शरीर है वहीं वहां मांस है, जैसे ऊँट वगैरह, ऐसी व्याप्ति है। क्योंकि जोब का शरीरपन सर्वत्र समानरूप से पाया जाता है।३१।। उक्त मान्यता योग्य नहीं है, क्योंकि मांस, जीव का शरीर है यह कहना उचित है, किन्तु जो जीव का शरीर है, वह मांस होता भी है और नहीं भी होता। जैसे नीम, वृक्ष होता है, किन्तु वृक्ष नीम होता भी है और नहीं भी होता। अर्थात्-यदि किसी जीव का शरोर मांस होता है, तो क्या समस्त जीवों के शरीर मांस ही होते हैं? यह नियम नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियपर्यन्त जीवों में विशेषता है । यदि नीम वृक्षा होता है, तो क्या दूसरे वृक्ष भी नोम हो सकते हैं।
भावार्थ- जहाँ-जहाँ मांस होता है, वहाँ-वहाँ जीव-शरीर अवश्य होता है, परन्तु जहाँ जोव-शरोर होता है, वहां मांस होने का नियम नहीं है। क्योंकि मांसपन व्याप्य है और जोव शरीरपन व्यापक है, इसलिये जहाँ जहाँ व्याप्य होता है, वहां-वहाँ व्यापक अवश्य होता है। परन्तु जहाँ व्यापक है वहां व्याप्य के होने का नियम नहीं है। जिस प्रकार जहाँ-जहाँ नीमपन होता है, वहाँ वृक्षपन अवश्य होता है, परन्तु जहाँ वृक्षपन है वहाँ नीमपन के होने का नियम नहीं है। अतः मूंग, उड़द-आदि को एकेन्द्रिय जीव के शरोर होने से मांस मानना युक्तिसंगत नहीं है ॥ ३२ ॥ १. मश्रमांम्रमधुमक्षकाणा। २. भाजनादिस्पर्श । ३. निन्दा। ४. चर्मभाण्डेषु । ५. धृततलाघारचर्ममाजनेषु ।
६. रजःस्यलाः, काये संसग । ७. प्राण्यङ्गत्वाविषेऽपि भोज्यं मांसं न धार्मिकः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेऽपि जनायव नादिका ॥११॥ सागारधर्माः । ८. उष्ट्रः । *. एकेन्द्रियशरीरमपि मार्स। २. मिध्यामादयः । १०. यदि कस्यचित पारीर मांसं संजातं तहि सर्वेषां जोवानां शरीरं कि मांसमव भवति । तन्न, एकेन्द्रियावि पंचेन्द्रिय-पर्यन्स विशेषोऽस्ति, चैत् कविचलिम्बवृक्षाः संजालस्तहिं अन्यऽपि वृक्षाः किं निम्बा एव । अपि तु म ।