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यशस्तिकमा पूकाव्ये वतियसवतीनि । न च तिरसवेसंबंधाबाईसनिधारमाश्रवन्मनि जान्नव इवान पायायात्म्य समयामा मनोममनमात्रता मिशेषतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणोपः, न शरोरमायासपितष्यम्, न देशान्सरमनुसरणीयम् नापि काल-क्षेप क्षिर लिसम्मः । तस्माबधिष्ठानमिव प्रसादस्य, सौभाग्यमिव रूपत्तंपयः, प्राणितमिय: भोगा "यतनोपचाप, मूलनलामव विजय प्राप्ते, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नपानुष्वामिभ राध्यस्थितेरसिलस्यापि 'परलोकोवाहरणस्य सम्पपरवमेव ननु प्रथमं कारणं " गुणन्ति गरीयांसः १ ताप चे लक्षणम्
(आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारण यात । मुहापोवनष्टा सम्यक्त्वं प्रामाविमा ।।५१|| सर्वज्ञ सर्वलोकेशं । सर्वदोषयिनिनम् ।। सर्वसत्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोधिता: ॥१२॥ जानधान्मृम्यते कश्चितदुक्ता प्रतिपतये । अशोपदेशशरणं पावित्रलाभनङ्किभिः ॥५३॥
सोमित होता है वैसे हो व्रत भी सीमित होते हैं। किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है। इससे मुक्ति श्री की प्राप्ति होता है। निमगंज सम्यग्दर्शन के लिए, जो कि मोक्षोपयोगी तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से और उनमें विशुद्ध चित्त वृत्ति को लगाने मात्र से वैसा उत्पन्न होता है औसे गाद पारे व अग्नि के सन्निधान मात्र से सुवर्ण-उत्पन्न होता है, न सो सगस्त त्रुन के श्रवण संबन्धी परिश्रम का आश्रय लेना चाहिए एवं न निनादि पालन द्वारा ] शरीर क्लेक्षित करना चाहिये, न देशान्तर में भटकना चाहिए और न काल के मध्य गिरना चाहिए। अभिप्राय यह है कि इसी काल में सम्यकाव उत्पन्न होता है, इसका विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि समस्त काल में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। महामुनि सम्यग्दर्शन को हो निश्चय से मुक्ति का पैसा प्रधान कारण कहते हैं जैसे नींव को महल का, सौभाग्य को पसम्पदा का, जीवन को शरीर-सुख मा, राजा की सैनिक याक्ति का उसकी विजय प्राप्ति का, विनयशीलता को कुलीनता का और राजनीति का अनुष्ठान राज्य-स्थिति का प्रधान कारण कहते हैं। उसका लक्षण इस प्रकार है
सम्यग्दर्शन का लक्षण-माप्त (सर्वज्ञ वोलराग देव ), आगम (आचाराङ्ग-आदि शास्त्र ) और मोक्षोपयोगी माल तत्वों का तीन मूढ़ता-रहित और निःशाति-आदि अष्ट अङ्गों-सहित यथार्थ प्रदान करना सम्यग्दर्शन है, जो कि प्रशाम ( क्रोध-आदि करायों को मन्दता ), संवेग ( संसार से भयभीत होना ), अनुकम्पा ( समस्त प्राणियों में दया करना । बोर आस्तिक्य ( सत्यार्थ ईश्वर व पूर्वजन्म-अपरजन्म-आदि में श्रद्धा रखना। इन विशुद्ध परिणाम रूप चिन्हों कार्यों से अनुमान किया जाता है एवं जा निसर्ग (स्वभाव ) से और अधिगम ( परोपदेश ) इन दो कारणों से उत्पन्न होता है, इसलिए जिसके निसगंज और अधिगमज ये ये दो भेद हैं ॥ ५१ ॥
आप्त का स्वरूप-जो सर्वज्ञ { त्रिकालदर्शी ) है, सर्वलोक का स्वामी है और सुधा और तुषा-आदि १८ दोपों से रहित (वीतरागी) है एवं समस्त प्राणियों का हित करने वाला है, उसे आप्तस्वरूप के ज्ञाता महामुनि आप्त कहते हैं ।। ५२ ।। क्योंकि मुख के वचनों को प्रमाण मानने पर ठगाए जाने की आशङ्का करने वाले शिष्ट पुरुप सर्वज्ञ के वचनों को अङ्गीकार करने के लिए किसी ज्ञानी वक्ता की खोज करते हैं ||५३|| १. उपधः अग्निः । २. जाम्बूनदं मुत्रण । ३. नम्पका । -4. कालस्य मध्ये न पतिलगर्य, अस्मिन्नेव काले
मध्यपत्वमायने एवं न चिमनीय किन्नु सर्वस्मिन्नेव झाले सम्यक्त्रमुत्त्पद्यते । ६. जीवितं । ७. शरीरं । ८. राजः गगेरशक्ति, अत्र मूल्याडेन नुपी अप: । ... गोक्षस्य । १०. सम्यक्त्वमेव मोक्षकारण। ११. मायन्ति । १२. गरिष्ठाः महामुनयः। १३. तन्निसर्गादधिगगाढ़ा । १४. आप्तश्रुतोनिताः (क०) १५. सर्वज्ञववनाङ्गीकारनिमित्त । १६. अन्यथा मुसंवचाप्रमाणकरणे नियन्तम्भ पालम्भो भवति ।