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षष्ठ आश्वासः
२५१ पारिषेणस्य पुरतो हारमपहाय' तिरोबष। तदनुचरास्ताकाशविक्षयवशात् 'वारिषेणोऽयं मनु राजकुमारः पलायितुमशक्तः पित्रोः श्रावकरवानिमामहत्प्रतिमासमानाकृति प्रस्पिट पुरो निहितहारः समास्त' वरयवमृषय प्रविश्य म विश्वभराधोशषभनिवेश मेतस्मितुः प्रतिपानित वृत्तान्ताः ।।
रण्डो हि केवलो लोकं परं रेमं च रशति । राजा शात्री च मित्र व स्थावोवं समं पः ॥१९८॥
इति वचनात् 'न हि महीभूओ गुणवोपाभ्यामन्यत्र मित्रामित्रव्यवस्पितिः, तबस्य रमापहारोमहत्तारित्रस्म पत्रात्रोनं प्राणप्रयागावपरमवण्डो वण्डः समस्ति' इति न्यायनिष्ठरताभिनिषशासज्जनकादेशावागत्य तं सदाचारमहासं प्रहसः शरविश राप्रसूनशेखरता भमिलमण्डलानि कर्णकुण्डलतां कृपाण निफरन्मुक्ताहारतामेत्रमपराम्प्यस्त्राणि सत्तभूषणतामनु सन्ति । निगुष्य सब घानधर्मप्रवृद्धप्रमोवतया स्वयमेव पुरदेवताकरविकोयंमाणामरतरप्रसवोपहारमारचरकुमारास्कास्यमानानकनिकरमनिमिषनिकायकोत्यमानानेकस्तुतिव्यतिकरमितस्सतो महामहोत्सवावतारं . आगे हार स्थापित करके जिनेन्द्र की प्रतिमा-सी अपनी आकृति बना ली है और यहाँ स्थित है। इसके बाद बे राजा श्रेणिक के आवास स्थान पर पहुँचे और उनसे सब समाचार कथा कर दिया।
नीतिकारों ने कहा है कि निस्सन्देह केवल दण्ड ही, जो कि राजा द्वारा शत्रु व मित्र को अपराष के अनुकूल समानरूप से दिया गया है, इस लोक व परलोक को रक्षा करता है ।। १९८ ।।'
"निश्चय से राजाओं के लिए गुण-दोष छोड़कर मित्र व शत्रु-व्यवस्था नहीं है । अर्थात्-राजाओं के लिए जो गुणी है, वह मित्र है और जो दोषी-अपराधी है, वह शत्रु है, इसलिए रत्नमयी हार को चुराने से नष्ट चरित्रवाले इस पुत्ररूप शत्रु के लिए प्राणदण्ड (फांसी की सजा ) को छोड़कर कोई दूसरा तीक्ष्ण दण्ड नहीं हैं।' [ ऐसा विचार कर राजा श्रेणिक ने अपने पुत्र के प्राणदंड की आज्ञा दे दी।]
इस प्रकार न्याय की निष्ठुरता के अभिप्राय वाली बारिषेण के पिता ( राजा ) की आज्ञा से वे नगररक्षक श्मशान भूमि में आए और उस महान् सदाचारी वारिषेण के ऊपर शस्त्र प्रहार करने लगे। परन्तु उन्होंने वागसमूहों को फूलों के मुकुटों का अनुसरण करते हुए, और चक्रसमूहों को कर्ण-कुण्डलों का अनुसरण करते हुए एवं खगसमूहों को मोतियों के हारों का अनुसरण करते हुए देखा। अर्थात्-वाण-समूह फूलों के मुकुट बन गए और चक्रसमूह कण-कुण्डल हो गए-इत्यादि। इसी प्रकार दूसरे अस्त्र भी उसके भाषणपने का अनुसरण करते हुए।
उक्त घटना जानकर उसको ध्यान की धीरता से विशेष प्रमुदित होने से नगर देवता-आदि ने चारों और ऐसे महामहोत्सव का अवतरण किया, जिसमें नगर-देवता के करकमलों द्वारा क्षेपण किये जा रहे कल्पवृक्षों के पुष्पों के उपहार ( 8 ) वर्तमान थे। जिसमें विद्याधर-कुमारों द्वारा अनेक दुन्दुभि बाजे-समूह बजाए जा रहे थे एवं जिसमें देव-समूह द्वारा प्रशंसा की जा रही अनेक स्तुतियों का मिश्रण था।
जब प्रहार करने वाले नगर रक्षकों ने यह सब घटना देखी तो उनका मन विशेष भयभीत व आश्चर्यान्वित हुआ और शीन जाकर उन्होंने घेणिक राजा से मान्य' समाचार निवेदन किया । राजा शीघ्र ही
१. त्यक्त्वा । २. आवासस्थानं । ३. वारिवणतातस्य । ४. भुयाः निकाय निवेषयामासुः । ५. प्रसंगन् । ६. अनुसर
तान् । ३. चक्र। ८, ज्ञात्वा ।