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यशस्तिलक घम्पूकाव्ये वसरे विग्विलोकानाबमन्दिर स्थिसः समवलोक्य कोऽयमका प्रचण्डः पौराणामुचा योद्योग नियोगः इति वितर्कमन्, सफलतम पसंभविप्रसनस्तिमि तहस्तपल्लवान्तरालपवनपालात 'च, भवदामोत्सुरुवनदेवतालीषने भगवसप:प्रभावप्रवृत्तसमस्तत॒म्मावितमेदिनीनन्दने निजलक्ष्मीविलक्ष्यीकृतगन्धमादने पुरोपबने सगुणश्रीसंपादितसमूहेन महता मुनिसमहेन सह सर्वसस्यानम्बप्रवानोबाराभिषासुभाप्रबन्धावषीरिसामृतमरीचिमण्डलो" निखिलविश्पालमौलिमणिनायकमकुरन्दोमवत्पादनक्षमण्डल: पुण्यतिपथ बन्धनवारिरकम्पनसुरिः समायातः । तपासनाप पास्पोम्बयिनौजनस्य महामहावाधिनत्तोत्साहः' इत्याकम प्रवर्णमेसस्पास्ववनोग्रतहल्यस्तत्र गमनाय तं मिथ्यात्वप्रबलताललाश्रयकाल लिमपृच्छत् ।
सहमधुरोधरण गलिचति:---'देव,
न वेदावरं तस्वं न श्राद्वादपरो विधिः । न यज्ञापपरो धर्मो न सिंजापपरो यतिः ॥ २२१ ।।' किया था। जिसने उत्कट तपश्चर्या रूपी गुण धारण करने से तीन लोफ को सरल किया था एवं जो महाऋद्धिधारी थे।
तब उसने विचार किया-'नागरिकों को यह तेज उत्सव देखने की प्रवृत्ति असमय में क्यों हो रही है ?
इतने में ही उसने वनपाल स, जिसके हस्त पल्लव का मध्य-भाग समस्ल छह ऋतुओं में होने वाले पुष्पों से निश्चल था, निम्नप्रकार वृत्तान्त सुना
'हे राजन् ! आपकी नगरी के ऐसे उपवन में, जहां पर वनदेवता के नेत्र आपके दर्शनार्थ उत्कण्ठित हैं। जिसमें पाये हुए पूज्य अकम्पनाचार्य की तपश्चर्या के प्रभाव से प्रवृत्त हुई छह ऋतुओं द्वारा वृक्ष विकसित किये गए हैं। जिसने अपनी सौगन्च्य लक्ष्मी द्वारा गन्धमादन ( पर्वत विशेष ) को तिरस्कृत या शोभा-रहित किया है। प्रशस्त गुणरूपी लक्ष्मी से यथार्थ विचार प्राप्त करने वाले महान् मुनिसंघ के साथ, ऐसे श्री अकम्पनाचार्य आये हुए हैं, जिसने समस्त प्राणियों को आनन्द देनेवाले महान् वचनरूप अमृत-समूह द्वारा चन्द्र-मण्डल तिरस्कृत किया है, जिसके चरणों का नख-मण्डल [ नम्रीभूत ] समस्त दिक्पालों के मुकुटों में जड़े हुए थेष्ठ मणियों से दर्पण-सरीखा हो रहा है और जो पुण्य रूपी हाथियों के झुण्ड के बन्धन के लिए खूटासरीखा है, उनकी उपासना करने के लिए इस उज्जयिनी नगरी के मनुष्यों के चित्त में महान् पूजाकारक उत्साह उमड़ रहा है।'
फिर उक्त आचार्यश्री के चरणों की वन्दना के लिए उद्यत हृदय वाले राजा ने वहां प्रस्थान करने के लिए बलि नाम के मंत्री से पूछा, जो मिथ्यात्व की विशेष प्रबलतारूपी लता के आश्रय के लिए बहेड़ा के वृक्षसरीखा है ।
तब सच्चे धर्म को घुरा को उखाड़कर फेंक देने में दुष्ट बैल-सरीखे वलि मन्त्री ने कहा-'राजन् ! वेद से दूसरा कोई तत्व नहीं है। श्राद्ध से उत्कृष्ट कोई विधि नहीं है। यज्ञ से महान् कोई दूसरा धर्म नहीं है
और ब्राह्मण से उत्कृष्ट कोई दूसरा साधु नहीं है ।। २२१ ।। १. उत्सव। २. कोऽधिकारः । ३. षड्ऋतुः। ४. निश्चल। ५. वृक्षे। *. 'विलक्षीकृत' क०। ६.
संपादितः सम्यगृही विद्यारी मेन । ७. चन्द्रः। ८. दर्पणीभवत् । ९. महापूजाकारकः । १०. विभीतकतई । ११. गलिवुटवृषः शक्तोऽप्पचूर्वहः कर्मायोम्यो वलिः ।