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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'अक्षामान पचिोहाइहावृत्तं च नास्ति यत् । आत्मन्यस्मिन्निीभूते तस्माचारमैव तत्त्रयम् ।।२४८।। मात्मा कर्म न कर्मात्मा "तयोर्यन्महवन्तरम् । तबारमंद तवा सत्ता बारमा व्योमेष केवालम् ।।२४९|| कलेआय कारणं कर्म विशुद्ध स्वयमात्मनि । मोष्णम स्वतः किन्तु सर्वाग्य चह्निसंश्रयम् ॥१५॥ मात्मा फर्ता स्थपर्याय र कर्म कर्तृ स्वपय । मियो । म जानु कमपरायचा ॥२५१।। स्वतः सर्व स्वमादेषु सक्रिय सचराचरम् । निमितमात्रमत्यत्र वागतेरिव सारिणी ॥२५२।।
जोवस्तु वा नियन्तां वा प्राणिनोऽमो स्वकर्मतः । स्वं विशुद्ध "मनोऽहिंसन्हिसकः पापभाग भवेत् ॥२५३॥ निश्चय चारित्र है ।।२४। इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो उसे इन्द्रियों या मन में ज्ञान होता है,न मोह से जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है, अतः ज्ञान, दर्शन व चारित्र तीनों आत्मस्वरूप हो है।
भावार्थ-उक्त निरूपण निश्चय नय की दृष्टि से किया गया है, साथ में अमृतचन्द्राचार्य ने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में कहा है कि व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता ही जगत में धर्मतीर्ध का प्रवर्तन करते हैं । अतः दोनों दृष्टि से वस्तुविवेचन श्रेयस्कर है ।। २४८ ।।।
अब आत्मा और कर्म के संबंध को स्पष्ट करते हैं
आत्मा कर्म नहीं है, अर्यात-ज्ञानावरणादि रूप नहीं है और कर्म आत्मा नहीं है, अर्थात्-शुद्ध चैतन्यरूप नहीं है, आत्मा और कर्म में महान भेद हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न है। अतः मुक्कावस्था में कर्म-रहित होने से केवल आत्मा की हो सत्ता है और वहाँ वह केवल शुद्ध आकाश की तरह अमूर्तिफरूप से स्थित है ।। २४२ ।। आत्मा स्वर्य विशुद्ध है और कर्म उसके क्लेश का कारण है। जैसे जल स्वयं उष्ण नहीं है, अर्थात् सोतल है किन्तु अग्नि के आश्रय से उसमें उष्णता आ जाती है ।। २५० ।। आत्मा अपनी पर्याय ( सिद्धपर्याय या ज्ञानादि गुणों को पर्याय ) का कर्ता है और कर्म अपनी पर्याय ( टि० नर-नरकादि पर्याय ) का कर्ता है। उपचार (काबहार ) के सिवाय दोनों परस्पर में एक दुसरे के कर्ता नहीं है, अर्थात्-उपचार से आत्मा को कर्म का कर्ता, और कर्म को आत्मा का कर्ता कहा जाता है, परन्तु वास्तव में दोनों अपनी-अपनी पर्यायों के ही कर्ता है ।। २५१ ।। छह द्रब्यों वाला समस्त चराचर लोक स्वयं अपने-अपने स्वभावों में क्रिया-सहित है, अर्थात्-अपने-अपने स्वभावों का कर्ता है, दूसरी वस्तु तो उसमें निमित्तमात्र है। उदाहरण में आत्मा अपनी सिद्धपर्याय का कता है और कर्म अपनी कम पर्याय का कर्ता है, दूसरी वस्तु निमित्त मात्र है । जैसे जल में स्वयं प्रवाहित होने को दाक्ति है परन्तु नदी उसके प्रवाहित होने में निमित्तमात्र है ।। २५२ ।।
यहां शङ्का यह हे जब जीव अपने अपने कर्मों के उदय से जीते व मरते हैं तो मारने में निमित्त हुए को हिंसा का पाप क्यों लगता है ? अत: इसका समाधान करते हैं--- १. आत्मनि मोटो मा सति आन परिन्द्रियात् ज्ञानं न भवति । २. मृतजीवे मोहनीयवर्गणः रुचिर्न किन्नु आत्मविश्व । ३. शरीराच्चारमन किन्न, आत्मवेकलोलीभावश्चारि। ४. दर्शनज्ञानमारिश्रयं । ५. आत्मकर्मणोः ।
भरः। ७.जागतत्वे । *. 'वाल्माज्योमेव केवलं' (स.)। अद्य इदानों केवलमात्मानमेव अङ्गीकृतः? एव निश्चयन । ८. तस्य जलस्योष्णलं अम्नेर्भवति । ९. सिद्धपर्यायलक्षणे । १०. नरनरकादी पर्याय कर्त । ११-१२. पराग्पात्मकर्मणोः कर्तृत्वं न, उपचाराद् व्यवहारादन्यत्र परस्परं कर्तुत्वं भवति न तु निश्चयात् । १३. निजस्वनावपु क्रियासहित. आत्मा आत्मानं सिद्धं करोति, कर्म कर्म करोति । १४. जगत् । १५, नीफजलगमनस्य ।। १६. 'मरदु व जियदु व जीवो मयदाचारस णिचिदा हिंसा । पयवस्स रिय वन्धी हिशामिनेण समिदस्म ॥' १७. अशुद्ध मनः कुर्वन पुमान् हिसको भवति पापी छ । 'स्वयमेवात्मना उत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् पूर्व, प्राण्यन्तराणान्तु पश्चात् स्यारा न वा वधः । सर्वार्थ सिद्धि म०७ सूत्र १५ से संशलित