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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
"वेशतः प्रथमं तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् । चारित्रं धारवारित्र विचारोचितचेतसाम् ।। २६६ ।। बेतः सर्वतो वापि नरो न लभते व्रतम् । स्वपिषगंयो यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ॥ २६७ ।। "तुण्डकण्डहरं शास्त्रं सम्यक्त्व विधुरे" नरे । ज्ञानहीने तु धारित्रं दुभंगाभरणोपमम् ॥ २६८ ।। सम्पवात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीतिवाहुता । वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयान्च लभते शिवम् ।। २६९ ॥ तिवेषु सम्यक्त्वं ज्ञानं तत्त्वनिरूपणम् । औदासीन्यं परं प्राहुषुतं सर्वक्रियोज्झितम् ॥ २७० ॥ वृतममिदपायो : सम्यक्वं च रसौषधिः साधुसिद्धो भवेवेष 'तल्लाभावारमपारदः ।। २७१ ॥ सम्यक्त्वस्थाय दिवत्तमम्यासो मतिसंपदः " | चारित्रस्य शरीरं " स्वाद्वित्तं वानादिकर्मणः ।। २७२ ।।
के भेद से दो प्रकार का है ।। २६५ ॥ विशुद्ध चारित्र के विचार से योग्य चित्तवृत्ति वाले आचार्यों ने गृहस्थों का देशचारित्र कहा है, क्योंकि उसमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पाँच पापों का एक देश त्याग किया जाता है और मुनियों का सकलचारित्र कहा है, क्योंकि उसमें हिंसा आदि पांच पापों का सर्वदेश त्याग किया जाता है ।। २६६ || जिस मनुष्य में स्वागं व मोक्ष में से किसी को भी प्राप्त करने को योग्यता (शक्ति) नहीं है, वह न तो देश चारित्र ही पाल सकता है और न सकल चारित्र हो पाल सकता है ।। २६७ ।। सम्यक्त्व-हीन मानव का शास्त्रज्ञान केवल उसके मुख की खुजली दूर करता है— अर्थात्-वादविवाद करने में हो समर्थ होता है; क्योंकि उसमें आत्मदृष्टि नहीं होती । एवं ज्ञान शून्य का चारित्र-धारण विधवा स्त्री के आभूषण धारण करने के समान निरर्थक है।
भावार्थ - विना सम्यक्त्व के शास्त्राभ्यास- ज्ञानार्जन निरर्थक है ओर विनाज्ञान के चारित्र का पालन करना व्यर्थ है ।। २६८ ॥ सम्यग्दर्शन से मनुष्य को प्रशस्त गति-स्वर्ग -श्री प्राप्त होती है और सम्यग्ज्ञान से उसकी कीर्ति कौमुदी का प्रसार होता है और सम्यक् चारित्र से सम्मान प्राप्त होता है और तीनों से मुक्ति श्री प्राप्त होती है ।। २६९ ।। माचार्यों ने कहा है तत्त्वों में रुचि का होना सम्यग्दर्शन है । तत्त्वों का कथन कर सकता सम्यग्ज्ञान है एवं समस्त पाप क्रियाओं की त्यागवाली उदासीनता होना सम्यक् चारित्र है || २७० ॥ जो आत्मारूपी पारद (पारा) अनादिकाल से मिथ्यात्व अज्ञान व असंममरूपी कुधातुओं के संसगं से अशुद्ध हो रहा है, उसे विशुद्ध करने के लिए, सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र अनूठा साधन है । अर्थात् उसे विशुद्ध करने के लिए सम्यक् चारित्र अग्नि है और सम्यग्ज्ञान उपाय है तथा सम्यग्दर्शन ( चित्त को विशुद्धि ) रसौषधि ( नीबू के रस में घुटा हुआ सिघ्र ) है । अर्थात् उक्त रत्नत्रय की प्राप्ति से यह आत्मारूपो पारा विशुद्ध होकर सांसारिक समस्त व्याधियों को ध्वंस करके व सूक्ति श्री प्राप्त करता है ।
भावार्थ - अतः मुमुक्षु विवेकी मानव को रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील होना चाहिए ।। २७१ ।। सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है । अर्थात् इसकी प्राप्ति के लिए मानव को अपने चित्त की विशुद्धि करनी चाहिए। और ज्ञानलक्ष्मी का आश्रय शास्त्राभ्यास है । अर्थात् - ज्ञानलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए मनुष्य को शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। चारित्र का आश्रय शरीर है, अर्थात् — इसकी प्राप्ति के लिए शारीरिक कष्ट
१. विरतिः । २. विरतिः । ३. स्वर्गमोक्षयोमध्ये अस्य जीवस्य एकस्यापि योग्यता न भवति तस्याणुव्रत महाव्रतं च न भवति । ४५ रहिते । ६. श्रमण-कण 1 ७. वीसहितम् । ८. दर्शनज्ञान नारित्रप्राप्तेः । ९. आत्मा एव भारद्रः १०. ज्ञानलक्षायाः अभ्यास एव आश्रयः स्थानं । ११. आश्रयः । १२. आश्रमः ।