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षष्ठ आश्वासः
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इस्युपासकाध्ययने रत्नत्रयस्वरूपनिरूपणो नामकविंशतितमः कल्पः ।
इति सकलताकिकलोकचूडामणे श्रीमनेमिदेवभगवतः शिष्येण सधोग्नवद्यगणपषिद्यापरचायत्रातिशिखण्डमडमोभववरणकमलेन श्रीसोमदेवमूरिणा विरचिते यशोषरमहाराजबारिसे यशस्सिलफापरनाम्न्यपवर्गमार्गमहोदयो नाम षष्ठ आश्वास:
सहन करते हुए पाप क्रियाओं का त्याग करना चाहिए और दान-पूजा-आदि धार्मिक कर्तव्यों का आश्रय धन है। अर्थात्--न्याय से संचित किये हुए घन को पात्रदान-आदि धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए ॥ २७ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में रत्नत्रय का स्वरूप बतलानेवाला इक्कीसवां कलप समाप्त हुआ ।
इस प्रकार समस्त तार्किक-समूह में चूड़ामणि (मर्वश्रेष्ठ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमन्मोमदेव सूरि द्वारा, जिसके चरणकमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्य विद्याधरों के चक्रवतियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरमहाराजचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाब्य है, मोक्षमार्ग का उदयशाली यह षष्ठ आश्वास समाप्त हुआ। इसप्रकार दार्शनिक-चूड़ामणि श्रीमदम्बादास शास्त्री व श्रीमत्पूज्य आध्यात्मिक सन्त
श्री १०५ क्षुल्लक गणेश प्रसाद जो वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य, नीतिबाक्यामृत के अनुसन्धान पूर्वक भाषा-टीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनन्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, आयुर्वेद-विशारद, एवं महोपदेशक-आदि अनेक उपाधि-विभूषित, सागर निवासी परवार जैन जातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' की 'यशस्तिलक-दीपिका' नाम की भाषाटीफा में मोक्षमार्ग का उदयशाली यह षष्ठ
आश्वास पूर्ण हुआ।