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सप्तम आश्वासः
पुनर्गुणमणिकटक, कटकमेव माणिक्ष्यस्य सुधाविधानमिव प्रासादस्य पुरुषकारानुष्ठानमिव देवसंपदः पराश्रमावलम्बन मित्र नीतिमानस्य विशेष विश्वमिय' पावस्य" व्रतं हि शलु सम्यक्त्वरत्नस्थोपवु हरुमाः । सभव" वेशयतीनां द्विविषं मूलोत्तरगुणाश्रयणात् ।
तत्र
ममत्यागः सहोदुम्बरपचकः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ १ ॥ सर्वदोषोदयो मद्यान्महामोहकृते मंतेः । सर्वधरं पातकानां पुरःसरतमा स्थितम् ।। २ ।। हिताहितविमोहन देहिनः " कि न पातकम् कुर्युः संसारकान्तारपरिभ्रमणकारणम् || ३ || मन यादवा नष्टा नष्टा बूतेन पाण्डवाः । इति सर्वत्र लोकेऽस्मिन् सुप्रसिद्धं कथानकम् ॥ ४ ॥ समुत्पद्यपि देहिनोऽनेकशः ११ किल । मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय वेहिनाम् ॥ ५ ॥ मकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् । पूरयेयुनं संदेहं समस्तमपि विष्टम् ॥ ६ ॥ मनोमोहस्य हेतुत्वासिदानश्वाच्च दुर्गतेः । म
६
यहा छ दोषकृत् ।। ७ ।।
ज्ञानादि गुणरूपी मणियों के कङ्कणीभूत हे मारिदत्त महाराज ! आचार्यों ने कहा है कि निश्चय से व्रत (अहिंसा आदि ) सम्यक्त्वरूपी रत्न के वैसे गुणवर्धक हैं जैसे शोधनादि किया ( शापोल्लेखन आदि ) माणिक्य की गुणवर्धक होती है । जैसे चूने का लेप महल की शोभावर्धक होता है। जैसे पुरुषार्थ का अनुष्ठान भाग्य सम्पत्ति ( पूर्वोपार्जित पुण्य लक्ष्मी ) का गुणवर्धक होता है। जैसे पराक्रम का आश्रय नीतिमार्गसदाचार की समृद्धि करने वाला होता है और जैसे विद्वत्ता सेवनीय ( गुरु व राजा आदि ) की उन्नति करने वाली होती है ।
श्रावकों के व्रत मूलगुण व उत्तरगुण के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।
अरु मूलगुण
मद्य, मांस और मधु का त्याग और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग ये गृहस्थों के आठ मूलगुण आगम में कहे गये हैं ॥ १ ॥
मद्य -- शराब के दोष - बुद्धि को अज्ञान से आच्छादित करने वाले मद्यपान से समस्त दोष ( काम व कोपादि ) उत्पन्न होते हैं और यह समस्त पापों में अग्रेसर है ॥ २ ॥ मद्य पीने से हित और अहित का विवेक नष्ट हो जाता है, जिससे शराबी लोग संसाररूपी वन में घुमाने वाले कोन कोन से पाप नहीं करते ? अर्थात्- (- मद्य पीने से समस्त पाप उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ सर्वत्र लोक में यह कथा प्रसिद्ध है, कि शराब पोने से यदुवंशी राजा लोग नष्ट हो गए और जुआ खेलने के कारण पाण्डव नष्ट हो गए || ४ || निश्चय से शराब में असंख्यात जीव अनेक बार जन्म-मरण करके स्वल्प समय में शराबियों का मन मृच्छित करने के लिए शराब रूप हो जाते हैं ।। ५ ।। मद्य की एक बिन्दु में उत्पन्न हुए बहुत से जोव यदि वहाँ से निकलकर भ्रमण करें तो निस्सन्देह समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं ॥ ६ ॥ मद्यपान शरात्री का मन मूर्च्छित करने १. यथा । २. कङ्कण है मारिदत्त ! ३. शोभन रचना किया' टि० (ख० ) । 'शोधनादिक्रिया' टि० (घ० ) ( च० ) पञ्जि कायां च' । ४. पौरुपशक्तिः, कर्तव्यं । ५. पूर्वोपजत गुण्यस्य । ६. विद्वत्त्वं । ७. गुरोः नृपादिकस्य । ८. * 'सहोदुम्बरपञ्चकः' इति क०, ख०, घ० च० । ९. जीवाः । १०. मृत्वा । ११. बहुवारान् । १२. स्वरूपेन । १३. कारणत्वात् ।