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यशस्तिलचम्पूकाव्ये बहिष्कार्यासमयेऽपि हषि हाप संस्थिते । परं पापं पर पुण्यं परमं च प भवेत् ॥ २५७ ।। प्रफुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं पलेशभाजनः । यो न चित्तप्रचारशस्तस्य मोक्षपर कुतः ।। २५८॥ यज्मामाति यथावस्पं बस्तु सर्वस्वमनसा । तृतीय लोचनं नृणां सम्परजानं तबुध्यसे ।। २५९ ॥ यष्टिवन्जनुपान्धस्य सत्स्यात्सुकृतचेतसः । प्रवृत्तिविनिवृत्यङ्ग हिताहितविचनात् ।। २६० ।। मतिर्जागति 'वृष्टेऽर्थे उष्टेण्टे सवागमः । अतो न दुर्लभं तत्त्वं यदि निमसर मनः ।। २६१ ॥ यवर्षे शितेऽपि स्याजस्तो संतमसा मतिः । शानमालोकवत्तस्य षमा रविरिपोरिव ।। २६२ ॥
बन्ध करने का प्रसङ्ग हो जायगा। क्योंकि वह तपश्चर्या द्वारा अपने को दुःस्त्री व ज्ञानाभ्यास द्वारा अपने को सुखी बनाता है तब मुक्ति किसे होगी? ॥सा इसलिए जनदर्शन बताता है कि पुण्य-पापबन्ध की व्यवस्था हमारे विशुद्ध व संक्लिष्ट परिणामों पर अवलम्बित है, इससे अपने लिए या दूसों के लिए दिये हुए सुख व दुःख यदि क्रमशः शुभपरिणाम व अशुभ परिणाम पूर्वक है तब पुण्यबन्ध और पापबन्ध होता है, अर्थात् यदि हम दूसरे प्राणी को कषाय-वश दुःख देते हैं तो हमें पापबन्ध ही होगा और यदि हम शुभ परिणामों से दूसरों को सुख देते हैं तो हमें पुण्यबन्ध ही होगा, यदि ऐसा नहीं है तो आपके मत में पुण्यात्रब या पापानव निष्फल हैं ।। ३।।
चंचल मन वाला प्राणी दुसरों को सुख-दुःख न देता हआ भी पापबंध करने वाला हो जाता है। क्या कपड़े की मञ्जूषा में रखा हुआ वस्त्र मलिन नहीं होता? अर्थात-वैसे ही भोगों की ओर दौड़ता हुआ मन भी क्या अशुभ ध्यान के कारण मलिन होकर पापबंध करने वाला नहीं होता? ॥ २५६ ।। शरीरादि से हिसा व परोपकार-आदि अशुद्ध व शुद्ध कार्य करने में असमर्थ होने पर भी, यदि चित्त चित्त में लीन रहता है तो वह ( चित्त ) अशुभ ध्यान द्वारा तीव्रतम पापबंध करता है और शुभ ध्यान द्वारा उत्कृष्ट पुण्य बंध करता है तथा शुक्लध्यान द्वारा उत्कृष्ट मोक्ष पद प्राप्त करता है ।। २५७ ।। जो मानव चित्त की चंचलता को नहीं जानता, अर्थात्-जो भोगों को ओर दौड़ते हुए मन को नियन्त्रित करके धर्मध्यान में और जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के चिन्तवन में प्रेरित नहीं करता, वह मानव वाह्य क्रिया काण्ड ( अनशन-आदि तप ) को करता हुआ भी केवल कष्ट का पात्र होता है, उसे मोक्षपद कैसे प्राप्त हो सकता है ? अस: चित्त को नियन्त्रित करने में प्रयत्नशील होना चाहिए, तभी वाह्य क्रियाएँ फलप्रद हो सकती हैं, अन्यथा निरर्थक हैं ।। २५८ ।।
[अब सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताते है-]
जो वस्तु का समस्त स्वरूप ( गुण व पर्याय ) जैस का तैसा (होनाधिकता से रहित तथा संशयआदि मिथ्याज्ञान से रहित ) निश्चय करता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह मनुष्यों का तीसरा नेत्र है ॥२५।। वह सम्यग्ज्ञान पुण्य करने में मनोवृत्ति रखने वाले धार्मिक मानव को हित ( सुख व सुख के कारण) व अहित ( दुःख व दुःख के कारण) का विवेचन करके वैसा उसको हित-प्राप्ति व अहित-परिहार में कारण होता है, जैसे जन्मान्य पुरुष को लाठी ऊँची-नीची जगह बतलाकर. उसको हित-प्राप्ति और अहित-परिहार (ऊबड़-खाबड़ जगह से बचाने ) में कारण होती है ॥२६०।। मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों के विषयीभूत पदार्थों को ही जानता है, किन्तु श्रुतज्ञान (आगम) इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय ( सूक्ष्म, अन्तरित व दूरवर्ती ) दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान कराता है, इसलिए यदि ज्ञाता का मन ईलु नहीं है तो उसे तत्वज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ।।२६१|| यदि तत्वोपदेशक द्वारा जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रतिपादन कर देने पर भी शिज्य १. पित। २. से ४. अभध्यानन पापं स्यात, शुभेन पुण्यं, परमशुक्लेन पर पदं । ५, सर्वाग्र-सर्ववस्तु
स्वरूपमित्यर्थः । ६. गुरुपदिष्टे पवार्थे । ७. मात्सर्य-रहितं । ८. मलिना। ९. उलूकस्यैव ।