________________
२८६
यशस्तिलचम्पूफाव्ये गृहस्थो वा यति वापि सम्यक्त्वस्य समाभयः । 'एकादविषः पूर्वपरमश्व चतुविषः ॥२३८॥ मायानिदानमिथ्यावशल्यत्रितपदरेत । 'आवाकाक्षणाभावतत्त्वभावनकोलक ॥२३९।। "वृष्टिहीनः पुमानेति न पथा पवमीप्सितम् । तुनिट्टी' पुमानेति ननस पल्पोरिकप ::१४०॥ .. सम्यक्त्वं नाजहीनं स्यात्राज्यवस्माज्यभूतये। 'ततस्तरङ्गरंगत्यामङ्गी निःसङ्गमोहताम् ।।२४१॥
हैं। अङ्ग, पूर्व और प्रकीर्णक इन तीनों आगमों के पूरी तरह से अवगाहन करने पर उत्पन्न होने वाली गाढ. श्रद्धा को अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं । टिप्पणीकार ने भी यही लिखा है और अवधिज्ञानी, मनःपय॑य शानो व केवलज्ञानी पूज्य महापुरुषों के विश्वास से उत्पन्न होने वाले प्रगाढ़ तत्वश्रद्धान को परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं।
भावार्थ-इन सभी सम्यग्दर्शनों में अन्तरङ्ग कारण दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय ओर क्षयोपशम है, क्योंकि इसके बिना सम्यक्त्व होना अशक्य है। इनमें दर्शनमोह के उपशम से होनेवाले सम्यक्त्व को औपशामिक व क्षय से प्रकट होनेवाले सम्यग्दर्शन को क्षायिक और दर्शनमोह के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व की क्षायोपशमिक कहते हैं। परन्तु उक्त भेद बाह्म निमित्तों को आधार बनाकर किये गए हैं।
गृहस्थ श्रावक हो अथवा मुनि, परन्तु उसका सम्यग्दष्टि होना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना न कोई प्रावक कहा जा सका है और न मुनि । गृहस्थ के ग्यारह भेद हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएं कहते है और मुनि के ऋषि, यति, मुनि व अनगार ये चार भेद हैं ।। २३८॥ बती को सरलतारूपी कीलें के द्वारा मायारूपो काँटा निकालना चाहिए । भोग-तुष्णा के त्यागरूपी कोले के द्वारा निदानरूपी कोटे का उन्मूलन करना चाहिए और तत्वों की भावना ( सम्यक्त्व ) रूपी कोले के द्वारा मिथ्यात्वरूपी काँटे को निकालना चाहिए।
भावार्थ-सूत्रकार उमास्वामी ने भी निःशल्यो बती) इस सूत्र द्वारा बतलाया है, कि माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्ये ( काटे हैं. इनका उत्मलन करके अहिंसादि व्रतों का धारक व्रती कहा जा सकता है । इससे यह बात जान लेनी चाहिए, कि केवल अहिंसादि व्रतों को धारण करनेवाला नती नहीं हो सकता । अन्यथा द्रव्यलिङ्गी मुनि को भी, जो कि मिथ्यात्व-आदि तीन शल्यों के होने से पहले गुणस्थान वाला मिथ्यादष्टि है. व्रत्तो कहा जायगा। इसलिए निःशल्य होकर प्रतों के पालन से व्रती कहा जायगा। इसी प्रकार केवल निःशल्य भी व्रत धारण न करने पर प्रती नहीं कहा जा सकता, अन्यथा चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्पग्दष्टि भो निःशल्य होने के कारण प्रती माना जापगा। उच्ची बात हमने श्रीमत्पूज्य विद्यानन्दि आचार्य के 'तत्त्वार्थश्लोकवातिक' के आधार से लिखी है ।। २३९ ।।
जैसे दष्टि-नेत्रों से हीन ( अन्धा पुरुष ) अपने इच्छित स्थान पर प्राप्त नहीं हो सकता वेसे ही दृष्टि ( सम्ववत्व) से होन ( मिथ्याष्टि) मानव भो अपना अभिलषित स्थान ( मुक्ति ) का लाम नहीं कर सकता ।। २४० ।। पहले कहे हुए नि.शङ्कित-आदि आठ सम्यक्त्व के अङ्गों के बिना सम्यग्दर्शन वेसा विशिष्ट विभूति ( स्वर्ग व मुक्ति श्री ) देने वाला नहीं होता जैसे मन्त्री व सेनापति आदि राज्य के अङ्गों के
१. मूलभतं वदान्यर्चा-इत्याविभेदेन । २. ऋषि-यति-मुन्यनगारभेदेन । ३. यथासंख्येन । ४. शङ्कभिः कृत्वा । ५. नेत्र । ६. अष्टाङ्गपूर्णतायां सत्यां प्राणीनिःसङ्ग पारित्रं वाञ्छतु ।
*. देखिए 'तत्वार्यश्लोकयातिक' ० ७, सूत्र १८ की अन्तिम २ लकीरें।