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पठ माश्वांसः
विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते शुतः । न हि बोजव्यपायेऽस्ति सत्यसंपत्ति रङ्गमि ॥ २४२ ॥ afrat संयोरकष्ठा नाविंशंनोत्सुका । तस्य कूरे न मुक्तिश्रीतिर्वोषं यस्य वर्शनम् ।। २४ ।। 'मूयं माचाष्टौ तथानषद अतिदोषाः पविशतिः ।। २४४ || विश्वयोचित चारित्र: * सुष्टिस्तत्वकोविदः । अतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्वोऽध्यदर्शनः ॥२४५॥ यहि क्रिया कर्म कारणं केवलं भवेत् । रत्नत्रय सभृशेः स्यावात्मा रत्नत्रयात्मकः ॥ २४६ ॥ "विशुद्धवस्तुषी ष्टिषः "साफरगोचरः । १० झप्रसङ्गस्तोव सं "भूतार्थनयवादिनाम् ॥ २४७॥ विना राज्य विशेष समृद्धिशाली नहीं हो सकता । इसलिए जब सम्यक्त्व के आठों अङ्गों की परिपूर्णता हो जाय तब मुमुक्षु श्रावक निःसङ्ग - निर्यत्य दिगम्बर मुनि हो जाने का इच्छुक होवे || २४१ ।।
जिस प्रकार किसान को धान्य के बीजों के बिना धान्य- सम्पत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार मिध्यादृष्टि पुरुष को भी सम्यक्त्व के विना सम्यग्ज्ञान, राज्य-विभूति ओर लावण्य-सम्पत्ति कैसे हो सकती है ? || २४२॥ जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष हैं, चक्रवर्ती की विभूति उसका आलिङ्गन करने के लिए उत्कण्ठित रहती है और देवों की विभूति उसके दर्शन करने के लिए लालायित रहती हैं, अधिक क्या मुक्ति लक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ॥ २४३ ॥
[ अब सम्यग्दर्शन के दोषों का निरूपण करते है -]
तीन ढलाएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शङ्का - वगैरह, ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं ।
भावार्थ — देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ हैं। जाति, पूजा, कुल, ज्ञान, रूप, सम्पत्ति, तप व बल का मद करना ये आठ मद हैं। कुदेव और उसका मन्दिर, कुशास्त्र व कुशास्त्र के धारक, कुतप व कुतप के धारक ये छह बनायतन हैं। सम्यग्दर्शन के आठ मङ्गों के उल्टे शङ्का, कांक्षा, विचिकित्साआदि आठ दोष हैं। ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं। जिसने इन दोषों का त्याग किया है, उसका सम्यग्दर्शन निर्दोष कहा जाता है ॥ २४४ ॥
मोक्षमार्गी कौन है ?
तत्वों का ज्ञाता सम्यग्दृष्टि मानव, जो कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए योग्य चारित्र का धारक है, अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र का धारक हैं, व्रत धारण न करता हुआ भी मुक्ति के मार्ग में स्थित है, किन्तु व्रतों का पालन करते हुए भी जो सम्यग्दर्शन से रहित ( मिथ्यादृष्टि ) है, वह मुक्ति के मार्ग में स्थित नहीं है || २४५॥ बाह्य क्रिया । बाह्य ज्ञान व चारित्रादि) और बाह्यकर्म । देवपूजा आदि में शारीरिक कष्ट सहन आदि । तो रत्नत्रय की उन्नति में केवल निमित्त मात्र हैं, किन्तु रत्नत्रय की समृद्धि का प्रधान कारण ( उपादान कारण ) तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रमय आत्मा हो है ।। २४६ ।।
निश्चयनय के वेत्ता आचार्यों के मत में, अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि से विशुद्ध आत्मस्वरूप में रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है । एवं विशुद्ध आत्मस्वरूप को विकल्प रूप से यथार्थ जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सभ्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के विषय में मेद बुद्धि न करके एक रूप होना, अर्थात् — आत्मस्वरूप में लवलीन होना ३. अनायतनानि पद्, कुदेवतदा६. वाह्मज्ञानचारित्रादि । ७. १०. तयोर्दुग्बोधयविषये
१. धान्यसम्पतिः । २. मूत्रयस्य मदानां च विकल्पं कविः स्वयमेवोत्तरत्र वदयति । लयतदागमत्यर्थः । ४. व्रतोऽपि योग्यचारित्रः । ५ मुक्तिस्थो न स्मात् । शरीरणलक्षणं । ८. आत्मस्वरूपे चिश्चि सम्यक्त्वं । ९. आत्मपरिज्ञानं । अप्रसङ्गः मभेदः एकलोलीभावः निश्चयचारित्रं । ११ मिश्चयनयज्ञानिनाम् ।