________________
२७०
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये राभिरामरमणीनिकरः, अपरंपच सस्तविपतमापर्यायपरिवारविहायोबिहार: सह ते बयकुमारभगवन्तमम्बराबवतरगतमुस्प्रेक्ष्य भिक्षुबीक्षापटीयसी पुष्पभूयसो बल बुद्धदासो, यस्याः युगलसपर्यासमये समायातं सकलमेतरसुरसैन्यम्' इति धतधिषणे पौरजनान्तःकरणे ससि स भगवानगगनगमनानोकः साकमोविलानिलये मिलोय सावष्टम्भमष्टा हो मथुरायां चक्रचरण परिश्रमय्याहतप्रतिबिम्बातिमेकं स्तूपं तत्रातिष्ठिपत् । अतएवाग्रापि ततीर्थ देवनिर्मितास्यया प्रयते । बुद्धवासी दासीवासीग्नमनोरमा ।
भवति चाय लोक:प्रोविलाया महादेव्याः पूतिकस्य महोभजः : स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिवज्रकुमारकः ।। २१४ ।। इत्युपासकाध्ययने प्रभावनषिमावनो नामाष्टावक्षः कल्प. । अथित्यं भक्तिसंपत्तिः प्रयुक्तिः क्रियाविधिः । मधर्म सोधित्यकतिवत्सलता मता ॥ २१५ ।। स्वाध्याये संयमे सङ्घ गुरी सबहाचारिणि । यथोचित्यं कृतामानो' विनयं प्राहुरादरम् ।। २१६ ॥
आषिस्याधिनिरुतस्य निरवधेन कर्मणा । सौचित्यकरणं प्रोक्तं वयावत्यं विमुक्तये ॥ २१७ ।। उपकरणों से मनोहर थे। जिनका कमनीय कामिनी-समूह, पिष्टातक नाम का सुगन्धित चूर्ण, पटवास ( वस्त्र सुगन्धित करने वाली द्रव्य-विशेष-सेंट-आदि ) व पुष्पोपहार से मनोज्ञ है।
इसके बाद जब नागरिकों के हृदय में ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई—'यह बुद्धदामी निस्सन्देह बौद्ध दीक्षा में वियोप निपुण व पुण्यात्मा है, उसी की बुद्ध-पूजा के अवसर पर यह समस्त देव-सेना आई हुई है ।'
किन्तु उस वन कुमार मुनि ने विद्याधर-सैनिकों के साथ औविला महादेवी के महल में अवतरण करके अष्टाह्निका पर्वबाली मथुरा नगरी में गर्व सहित रथ निकलवाया एवं उस नगरी में तीर्थकर भगवान् की प्रतिमा-सहित एक स्तूप स्थापित किया। इसी से आज भी बह तीर्थ देव-निर्मित नाम से प्रसिद्ध हो रहा है। इसे देखकर दासी-सरीखो बुद्धदासी का मनोरथ भग्न हो गया।
इस विषय में एक श्लोक है, जिसका अर्थ यह हैवज्रकुमार मुनि ने राजा 'पूतिक बाहन' की रानी महादेवी उविला के रथ का विहार कराया ॥२१४||
इसप्रकार उपासकाध्ययन में प्रभावना अङ्ग का वर्णन करनेवाला अठारहन कल्प समाप्त हुआ।
अब वात्सल्य अङ्ग का निरूपण करत है
धार्मिक पुरुषों का प्रयोजन दान-मानादि द्वारा सिद्ध करना, उनके गुणों में प्रीतिरूपी सम्पत्ति, हित, मित व प्रिय वचन बोलना, उनका आदर-सत्कार करना और साधर्मी जनों को दान व प्रिय वचनों द्वारा सन्तोष उत्पन्न करना यह वात्सल्य अङ्ग माना गया है ।। २१५ ।। स्वाध्याय, संयम (प्राणिसंयम व इन्द्रियसंयम ), मुनि संघ, गुरु ( आरम्भ-परिग्रह से रहित, विषयों को आशा से रहित एवं ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहने वाले साधु ) और सहाध्यायी को दान-मानादि से सन्तुष्ट करना व उनके आदर-सत्कार करने को आत्मतत्व के देता आचार्य विनय कहते हैं ।। २१६ ॥ मानसिक व्यथा व शारीरिक रोगों से पीड़ित धर्मात्मा पुरुषों को निर्दोष ( निष्कपट , विधि से ओषधि-आदि देकर सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य कहा गया १. विद्याधरः। २, बौद्ध । ३. बुद्धपूजा । ४, अवतीर्य । ५. अध्दाह्री उपलक्षितायां । ६. रयं । ७. सहितं ।
८. प्रकाशतां । *, "प्रियोक्तिः' क० । ९. सौमनस्यं । १०. समानशीले । ११. कृतो निश्चितः आत्मा स्वरूपं यः ।