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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये होण्यारणचतुरः' इति कुसहतिमाहृयपः 'सनिलयान्निर्गस्य पसि बधि निधिलानर्यसौंदर्य जिधर्यमेनमवादी-- 'भट्ट, किमिष्टं वस्तु चेतसि निधाय प्रायो। 'बले. दायावविलुप्तालयस्वालवर्थ पाचनयतमायकल मनिसलम् । द्विजोत्तम. निफार्म बसम् ।' 'ययेवं बहुमानपजमान, विभीयतामुवकषारोत्तरप्रवृत्तिः पतिः ।' बलिः प्रयामा लूमावाय 'विजाचार्य, प्रसार्यतां हप्तः' इत्युक्तवतिः शुक्रः' संक्रम्यनमिव कुलिशनिकेतनम्, प्रासादमिष फलशाहादन, मला. अपमिव मत्स्याश्रयम्, सरिम्नामिव शश्वासनारम्, दिहिणोवासरगणनकुबध प्रदेशमियोय रेखावकाराम, नारायणमिव चक्रलक्षणम्, यज्ञोपकरणमिव यवाधिकरणम.. जलयानपाभिव। निविद्रतामयम्, २ स्तम्बरमकरमिव tॉलिप्रसारम्, वशीकशालयांमयानुपू-प्रवृत्तपर्वसंवरम, कमलकोशमिवारुणप्रकाशनिवंशम्, विमभगा भोग
बाद में वह यज्ञ-मण्डप से बाहर आया और इस श्रेष्ठ ब्राह्मण से, जिसको आश्वयं-जनक मनोज्ञता इसकी उम्र व शरीर के वामनाकार से निश्चित की गई थी. वोला
'हे विद्वन् ! किस इष्ट वस्तु की इच्छा चित्त में स्थापित करके यह वेद पाठ करते हो ?'
हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ वलि ! 'मेरा गृह कुटुम्बो जनों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिये जाने से अभी कुटो बनाने के लिए केवल तीन पैर के प्रमाण से मनोज्ञ पृथिया के लिए वेदपाठ करता हूँ।
बलि-'द्विजोत्तम ! मैंने तुम्हें इच्छानुसार तीन पर जमीन दे दो।' द्विजोत्तम-'तो माननीय यजमान ! जल-धारा से मनोज्ञ प्रवृति वाला दान कीजए । एका बड़ी झारी [ हाथ में ] लंकर चलि-'द्विजाचार्य ! हाथ फैलाइए।'
ऐसा बलि के कहने पर शुक्राचार्य ने उसका ऐसा हाथ देखकर, बलि से कहा-गो वैसा कुलिशनिकेतन (बज़ के चिह्न वाला ) है, जैसे इन्द्र तुनिश-निकेतन ( वन का धारक ) होता है। जो उस भांति कलश-आलाद-कलश के चिह्न से आनन्द नद है, जिस भांति महल कलमा-आहाद-कलशों से आनन्द दायक होता है। जो वैसा मल्प-आश्रय ( मछली के चिह्न से अलइकृत ) है जैसे तालाब मत्स्थ-आश्रय ( मछलियों का आवास-स्थान ) होता है। जो साबल-अनाथ (बाल के चिह्न सहित है जैसे समुद्र पाङ्ख-सनाथ शङ्खों से ग्वाल) हाना है। जो वैसा ऊध्वं रेखा-युक्त है जैसे विरहिणी स्त्री के द्वारा पति के वियोग के दिनों की गिनती करने के लिए भित्ति देश खींचो गई रेखाओं का स्थान होता है। जो बैंसा चक्रलक्षण (चक्र-त्रित सुभाभित ) है जैसे विष्णु चक्रलक्षण ( सुदर्शन चक्रधारी ) होता है। जो बैसा पवाधिकरण ( अमूठे में जो के चिह्न का, जो कि कोतिका चिह्न है, आधार ) है जैसे यज्ञ के उपकरण यव. अधिकरण ( जो अन्न के आधार ) होते हैं। जो वेसा निश्छिद्रता-अमत्र ( संलग्न कर की अगुलियों वाला), है जैसा जहाज निद्रिना-अमत्र ( छिद्रों से रहित का स्थान ) होता है। जो वैमा दोघ-अगुलि-प्रसर ( लम्बी व विस्तृत अङ्गुलियों वाला ) है जैसे हाथो को मूंड दोघ-अलि प्रमर ( लम्बी नोक से विस्तृत) होती है। जो वैसा आनुपूर्वी प्रवृत्त-पर्व-संचय है, अर्थात् क्रमपूर्वक प्रवृत्त होने वाले पर्व-( गांठे ) समूह से सुशोभित है जिस प्रकार बांस के नये पते आनुपूर्वी प्रवृत्त पर्व संचयशाली-पर्व और गांठीवाले-होते हैं। जो वैसा अरण-प्रकाश-निवेश ( संध्याकालीन आकार की लालिमा वाला ) है जैसे कमल का कोश अरुण-प्रकाशनिवेश (सूर्य के प्रकाश का स्थान ) होता है। जिसके नाखूनों का अग्नभाग वेसा स्निग्ध-पाटल ( चमकीला १. दानघालायाः' इति टि० ० । 'म यज्ञमण्ड्यः ' इति पञ्जिकाकारः । 'यतमण्डपान्' इति दि० ० । २. प्राध्ययनं
कुरु। ३. मनोज । ४ मनोजप्रवृत्तिः । ५. भगारंपा। ६. सति बलो, अ वनमा बने । ७. मन्त्री । ८. इन्द्रं । ९. भित्तिदेशं । १०. गंगुष्ठे यबं बाश्चिह्न। ११ पोत । १२. संलग्नकराङ्गुलिम् । १३. अङ्करं । १४. रचनाविस्तार ।