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ર૭૮
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अत्रान्तरे निजनिवालपवित्रितमिथिलापुरेः प्रजिषणुसरेरम्तेवासी भ्रामिष्णुनाम तमीमध्यसमपे माहिपिहिताविहारः समीरमार्गे नक्षत्र योपों लोचनालोकनसनार्या विधाना मूरसंचारचलितगात्रं कुरनकलत्रमिय, तरलतारकानयणं धवणमध्यान्तरिओ लक्ष्यं बध्वा किलयपुच्चयोचत-'अहो, न जाने क्वचिन्महामनोनों महानुपसों वर्तते' इति । एतच्च 'श्रमणशरणगधी समाफयं प्रयुक्तावभियोषस्त भयरगिरिगुहायामकम्पनाचार्यस्य बनिदिलसितमवधार्याकार्य व गगनगममप्रभावं पुष्पकदेवं देशवतसेवन 'हहो पुष्पकदेव, तव विक्रय र्यान्न तनुपसविसर्ग साममम्ति । ततस्तथाविवशिरोधिष्ण विष्णवे तामदृष्टविशिष्टतामियात्मस्थितामप्यविवर्षे १० निवेश" तदुपसर्गापदयात्मरस' नियोजयितश्या ।' पुष्पकदेव स्त्रिदशोचितचरणसेवस्य तस्य ५'महर्भावितातं देशमासाथ विष्णुमुनये तथाविदिति गुरुनिवेशप्रति च प्रतिपारयामास । विष्णुमुनिः प्रदीप इय स्फाटिकभित्तिमम्यलब्ध प्रसरेण किरणनिकरण बारिषिवनविकानिर्भवनेन मानुषोत गिरिपर्यन्तसंवेदनेन मनुष्यक्षेत्रसूत्रपातविडम्बनकरेण
हामी गोद में बाने निमा हामपितापूरी को पवित्र करने वाले जिष्णु सूरि नामके आचार्य के शिष्य भ्राजिष्णु नाम के क्षुल्लक ने, जिसने अर्धरात्रि में बाहर विहार किया था और जो आकाश में नक्षत्रमार्ग को नेयों से दर्शन-युक्त कर रहा था, श्रवण नक्षत्र देखा, जो कि वैसा कांपने वाले नक्षत्र का आश्रय कर रहा था, जैसे मृगी का भरोर व्याघ्र के आगमन से कांपने वाला हो जाता है। पुनः ज्योतिष शास्त्र का विचार करके जोर से चिल्लाया--'आह ? न जाने पाहाँ पर महागुनियों पर महान उपसर्ग हो रहा है ?
जब उक्त बात मुनि-संरक्षक जिष्णु सूरि नामके आचार्य श्री ने सुनी तब उन्होंने अवधि ज्ञान से जाना कि हस्तिनागपुर नगर के पर्वत की गुफा में स्थित हुए अकम्पनाचार्य के ऊपर बलि घोर उपसर्ग कर रहा है।' इसके बाद उन्होंने शीन आकाश में विहार करने की शक्ति वाले पुष्पक देव नाम के क्षुल्लक को बुलाकर कहा-'पुष्पक देव ! तुम्हारे पास विक्रिया द्धि नहीं है, इसलिए तुममें मुनि संघ को उपसर्ग से दूर करने की शक्ति नहीं है, अतः उपसर्ग निवारग करने वाली विक्रिया ऋद्धि की वृद्धि से दोप्ति युक्त हो रहे विष्णु कुमार मुनि से निवेदन करके, जो कि अपने में प्रकट हई भी विक्रिया ऋद्धि को, जिसकी विशिष्टता का अनुमव स्वयं उन्हें नहीं है, जिससे जो विशेषता युन्य-सरीखी है, नहीं जान रहा है, मुनि संघ का उपसर्ग नष्ट करने अथवा छुड़ाने के लिए उन्हें हमारी आज्ञा से प्रस्तुत कार्य में नियुक्त करने की प्रेरणा करनी चाहिए।'
इसके उपरान्त पुष्यदेव देवों के योग्य वरण-कमलों को सेवा वाले महर्षि जिष्ण सूरि के वाहन से उस देश में पहुंचा और उनसे विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न होने की बात और गुरु की आज्ञा कह दी।
इसे सुनकर जेसे दीपक, स्फटिक मणि को भित्ति के मध्य प्रसार करनेवाले किरण-समूह से शोभायमान होता है, वैसे ही वे विष्णुकुमार मुनि भी लवण समुद्र की ववमयी वेदिका का भेदन करनेवाले व मानुषोत्तर पर्वत के पर्यन्त भाग का अनुभव करने वाले एवं मनुष्य क्षेत्र का आरम्म तिरस्कृत करनेवाले अपने हाथ से सुशोभित हुए। अर्थात् जब उन्होंने अपनी विक्रिया ऋद्धि की परीक्षा करने के लिए ज्यों हो अपना करकमल फैलाया तो वह लवण-समुद्र की वज्रमपी वेदिका का भेदन करता हुआ मानुषोत्तर पर्वत तक फैल गया।
१. निवासेन पवित्रिता मिथिलापुरी येन सः । *. गौरप्रधानहस्तस्वं तस्य सूरः । २. रात्रि । ३. गगने । ४. मागं ।
५. म्यान । ६. ज्योतिःमास्त्रे विचार कृत्या । ७. अमणानां पारणीभूतश्वासी गणी सूरिः । ८. हस्तिनागपुर । ९. रहितत्वात्-बिनाशनात् । १०. अजागते । ११. कथयित्वा । १२. प्रान्ताय-विमोचनाय । १३. १४. आदेशात्स विष्णर्योजनीयः । १५. जिष्णुमूरेः ।