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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
इत्युपासकाध्ययने बुद्धवास्याः पूतिकवानवरणो नाम सप्तवशः कल्पः ।
शय समाधाते भव्यजनानन्दसंपादिकर्मणि नन्वीश्वपर्वणि तथा पतिप्रणय यस्या बुद्धवास्या प्रतिचातुर्मास्यमौविलादेष्ाः स्यन्वनविनिर्गमेण भगवतः सकलभुवनोद्धरणकारणस्थितेजिनपतेर्महा महोत्सवकरणमुच्छेत्तुमिच्छन्नया' शुद्धोवनतनयस्पेष्टा मष्टाहा' सफलपरिवारानुगत मे तव खितमुपकरण जात सब निपतिर्याचितस्वयंव प्रत्यपद्यत । ऊविलाtouft सुभगभावात् सपत्नीप्रभवं यौजन्यमनन्यसामान्यमप्रतीकारमाकलब्य सोमवताचार्यमुपस भवन्त यद्येतस्मिन्नुत्रनिष्टाम पूर्वक्रमेण जिनपूजार्थं मथुरायां मदौयो रयो भ्रमिष्यति तवा मे बेहस्थितिहेतुषु वस्तुषु साभिलाषं मनः, अन्यथा निरभिलाषम्' इति 'प्रतिजिज्ञासमाना तेन सोमदत्तेन भगवता तन्मनोरथसमर्थनार्थ मवलोकितवक्त्रेण वयकुमारेण साधुना साधु संबोधिता मातः सम्यग्वृशमंणीवृशा मयाप्तत्रयमकथे, अलमलमावेगेन । यतो न ल मि सब समयसविण्याविन्सके पुत्रके सति भक्तिरहंतामहंणायाः प्रत्यवायः " । तत्स्वस्वं पूर्वस्थित्यात्मस्थाने स्थातव्यम्' इति मनवद्मममृषो निगद्य, नासाद्य १० च "गतिविद्याधरपुरं महामुनितया वात्मयविणतया च निखिलेन
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इस प्रकार उपासकाध्ययन में बुद्धदासी का पुलिक वाहन राजा के साथ विवाह का निरूपण करने वाला यह सत्रहवां कल्प पूर्ण हुआ ।
इसके पश्चात् जिसमें भव्यजनों के आनन्द-जनक धार्मिक कार्य पाये जाते हैं ऐसा 'नन्दीश्वर पर्व' जब आया तब 'पूतिकवाहन' राजा की प्रेमपत्नी पट्टरानो 'बुद्धदासी', जो कि समस्त लोक का उद्धार करने बाले भगवज्जिनेन्द्र तीर्थंकर के महामहोत्सव विधान को, जो कि प्रतिवर्ष चातुर्मास संबंधी नन्दीश्वर पर्व में after रानी द्वारा जिनेन्द्रदेव का रथ निकाल कर किया जाता था, नष्ट भ्रष्ट करने की इच्छा कर रही थी, उसने आठ दिन तक बुद्धदेव की पूजा की आयोजना की । अतः उसने राजा पूतिकवाहन से भगवान् गौतम बुद्ध की पूजा के लिए आठ दिन तक समस्त अनुचर वर्ग सहित रथयात्रा के योग्य उपकरण समूह के देने की याचना की तो राजा ने समस्त उपकरण समूह आदि के देने को स्वीकृति दे दो ।
जब विला रानी ने पति को प्रेमपात्र होने से अपनी सोत से उत्पन्न हुई, असाधारण व प्रतीकार करने के लिए अशक्य दुर्जनता का निश्चय किया तब उसने सोमदत्त आचार्य के पास प्राप्ति होकर ऐसी प्रतिज्ञा करने की इच्छुक होकर कहा - 'भगवन्! यदि इस दो तीन दिन में होने वाले आह्निका पर्व के महोत्सव में पूर्व क्रम के अनुसार जिनेन्द्र भगवान् को पूजा के निमित्त से मेरा रथ मथुरा में निकलेगा तो मेरा मन शारीरिक स्थिति को कारणीभूत वस्तुओं ( अन्म व जलादि ) के ग्रहण करने का इच्छुक होगा, अन्यथा नहीं ।'
उक्त बात को सुनकर पूज्य सोमदत्त आचार्य ने उसकी अभिलाषा सफल ( पूर्ण ) करने ने लिए मुनि वज्रकुमार के मुख की ओर देखा ।
पश्चात् वज्रकुमार साधु ने उसे अच्छी तरह आश्वासन दिया और उससे निम्न प्रकार मनोहर, निर्दोष व यथार्थ वचन कहे
'सम्यग्दृष्टि मृगनयनी महिलाओं में आगे वर्णन योग्य माता ! इस विषय में खेद मत करो। क्योंकि १. उच्छेदनं कर्तुमिच्छन्त्या 'उत्सेत्तुमिच्छन्त्या' इति मु० ख० । २. बौद्धस्य । ३. अष्टाही टि० ख० । 'महानि दिनानि अलोऽस्त्री नपुंसकलिङ्गवात् । त्रीलिङ्गापि डी विधौ च सति अहा, अह्नी इति च भवति, अष्टाहा इत्यभूत् । अस्याह्नः स्त्रियां वैरूप्यं - अष्टशहा, अष्टाहो, अष्टाहृीति' । इति पब्जिकाकारः । ४. प्राप्य । ५. प्रतिशां कर्तुमिच्छन्ती । ६. सम्यक्त्वसहितानां स्त्रीणां मध्ये त्रुरि वर्णनीयें । ७. अनजननमातुः । ८ ९ न भविष्यति कोऽपि विघ्नः पूजायाः विघ्नो न भविष्यति । १०. प्राप्य । ११. युगत्या आकाशगमनेन ।