________________
बाव बाश्वासः
२७५ मुमुक्षसमक्षमासन्नाशिवाय निसंघटुं बलिभट्ट प्रतिष्ठयमनभवारिकमायनमिलप्यारे 'भगवन्, सप्तमप्रतत्वसंबंषस्य निमस्नलितप्रवृत्तचित्तमहामोनान्यस्य सद्धर्मध्वंसहेलोजन्तोनिसर्गत्वपमेषु पुणगुन्यु न बस दुरपवादकरणापरभवसाने प्रहरणमस्ति' इति धमनपुरःमरं कमान्तरमनुवध्य साधु समाराध्य व प्रशान्तिहमवतो प्रभवपिरिमकम्पन सूरि यिनेयजनसंभावनौचित्यतया तकनुनपात्मसबनमासाधापरेवपरदोषभिषेण समिकारकरणमनुमैः सह कर्मस्काध बन्धवासुलिन बलि निजवेशानिसियामास ।
भवसाचात्र इलोको"सन्नसंच समावेव यदि चित्तं मलीमसम् । मास्यक्षान्तेः क्षयं पूर्वः परवाशुभचेष्टितात् ॥२३॥ स्वमेव हन्तुमीहेत दुर्जनः सज्जनं द्विषन् । पोऽथितिष्ठेत्तुलामेक: किमसी न अजेवघः । २२४॥ इत्युपासकाध्ययने बलिनिर्मातनो नामकोनविंशः कल्पः । यलिहिल: सानुजस्तमा सकलजनसमक्षमसूक्ष्म ११६मणपूर्वक निर्वासितः सन्मुनिविषयरोषोन्मेषकलुषितः
यह देखकर राजा के नेत्र विशेष लज्जा से विक्षिप्त होगए और उसने मुमुक्षु आचार्य के सामने समीप में अकल्याण रूपी वज्र का प्रहार करने वाले बलि भार से अपनी निष्ठा कल होने के यो मुछ भी नहीं कहा और आचार्य से कहा
'पूज्यवर ! निस्सन्देह कुवादी मानय के लिए, जो तत्त्व-संबंध का ज्ञाता नहीं है ( मूर्ख है ) और जो आत्मस्वरूप से पतित होने के कारण बड़े हुए चित्तवर्ती महामोह से अन्धा है एवं जो प्रशस्त घर का ध्वंसक है, स्वाभाविक स्थिरता में सुमेरु पर्वत-सरीखे व सम्यग्ज्ञान-आदि गुणों से महान् पूज्य पुरुषों की निन्दा करने के सिवाय अन्त में दूसरा कोई हथियार नहीं है। इसके बाद उसने चर्चा के प्रसङ्ग का उपसंहार करके प्रकृष्ट उत्तम मारूपो गंगानदी का उद्गम करने के लिए हिमवान् पर्वत-सरीखे अकम्पनाचार्य की उत्तम आराधना को । शिष्यजनों के समुचित विनय को जाननेवाली आचार्य को आज्ञा लेकर अपने महल में लौट आया। बाद में उसने दूसरे दिन कर्म-समूह के बंध के लिए हस्तिशास्त्र प्रणेता वालि आचार्य-सरीखे बलि को किसी दूसरे आराध के बहाने से धिक्कार के विधान सहित उसके साथी ( शुक्र प्रह्लादक व वृहस्पति ) मन्त्रियों के साथ आपने देश से निर्वामित कर दिया।
इस विषय में दो श्लोक हैं, जिनका अर्थ यह है
यदि चित्त मलिन ( अशुभ विचार से दूषित ) है तो सज्जन और दुर्जन एक सरीखे हैं। उनमें से सज्जन तो अशान्ति ( कोध ) के कारण नष्ट हो जाता है और दुर्जन बुरे कार्यों के करने से नष्ट हो जाता है। क्योंकि मज्जन मे द्वेष करनेवाला दुर्जन स्वयं अपने घात को चेष्टा करता है । ठीक ही है, जो अकेला हो तराजू में बैठ जाता है, वह नीचे क्यों नहीं जायगा? ।। २२३-२२४ ॥
___इस प्रकार उपासकाध्ययन में बलि के देश निर्वासन को वर्णन करनेवाला उन्नीसदी कल्प कल्प समाप्त हुआ।
जब समस्त लोगोंके समक्ष विशेष तिरस्कार पूर्वक निकाला हुआ बलि ब्राह्मण अकम्पनाचार्य को लक्ष्य करके उत्पन्न हुए क्रोध से सन्तप्त चित्त वाला हुआ तब उसने अपने छोटे भाई प्रह्लादक के साथ कुरुजाङ्गल
१. अकल्याणं। २. अनुक्त्वा । ३. उपसंहल्य । ४. गङ्गा। *. विगोपनं । ५. समूह। ६. गजागमाचार्य ।
७. सत्पुरुषदुर्जनौ । ८. क्रोधात् सत्पुरुषः क्षयं याति । २. दुर्जनः । १०. बृहत् । ११. पराभव ।