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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये मिया'व्य सत्वरमतिभीतपिस्मितान्तःकरणाः अंणिकधरणीधवस्येवं निवेदयामासुः | नरवरः सपरिवारः सोतास' तगतः सन्कुमाराचारानुरागरसोत्सारितमृतिभौतिस मामगवेगाद भगतामूलवृत्ताम्सः साधु तं कुमारं समयामास । नपनन्दनोऽपि प्रतिज्ञात समयावसाने प्राणिनां सुलभसंपाताः खलु संसारे व्यसनविनिपाताः । तबसमत्र कालमचलनावलम्म विलम्वेम । एषोऽहमिवानीमवाप्तयथार्थमनीषोन्मेषस्ताववात्महितस्यो पकरिष्ये' इति निश्चयमुपश्लिष्याभाष्य पित. रमापिण्य' च पाह्माम्यनारपरिग्रहामहमाघार्यस्य सुरवेवस्यान्तिके सपो जग्राह । भवति चात्र श्लोकः
वियुबमनसा पुंसा परिणछे वपरात्मनाम् । किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सवाधार हिलः खलः ॥१९॥
पुपाने यारिमारणामा नमो नाम प्रमोद कप: ।
पुनः 'पष्टं धर्म नियोजपेत्, तथा भातुरस्यागका रोपयोग इवानियतोऽपिजन्तोषर्मयोगः कुशलः क्रिपमाणो भवत्या त्यामवश्यं निःश्रेयसाय'ति जातमतिस्तपःपरिपहेऽपि सह पांसुश्रीदिनत्वाचिरपरिचयप्रकरप्रणयत्वाचास्मन: प्रियमुहवं पुष्पवतोभट्टिनीभर्तुरमात्यस्य शाण्डिल्यापनस्य नन्दनमभिनविवाहविहितकणबन्धनं पुष्पदन्ताभिधान
सपरिवार यहां आया और जब उसने ऐसे मगवेग नाम के चोर से, जिसने वारिषेण राजकुमार के सदाचार के पालन से उत्पन्न हुई स्नेह की उत्कटता के कारण अपनी मृत्यु के भय का सम्पर्क नष्ट कर दिया है, शुरु से अन्त तक हार की चोरी का सब समाचार जाना तब उसने राजकुमार से अच्छी तरह क्षमा मांगी।
राजकुमार वारिषेण ने ध्यान की प्रतिज्ञा के बाद यह निश्चय किया-'निश्चय से संसार में प्राणियों को दुःखों के आक्रमण सुलभ आगमन बाले होते हैं, अत: मृत्यु के आश्रय वाले विलम्ब से क्या लाभ है ? इसलिए अब यथार्थ बुद्धि के प्रकाश को प्राप्त हुआ में आत्मकल्याण के लिए प्रयत्नशील होऊंगा।' बाद में उसने अपने पिता से कहकर बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह के आग्रह को चर्ण करके सरदेव नाम के आचार्य के समीप में जिनदीक्षा ग्रहण कर लो।
इस विषय में एक श्लोक है, उसका भाव यह है-विशुद्ध चित्तवृत्तिवाले आत्मज्ञानी महापुरुषों के लिए सदाचार से ऊजह ( शून्य ) दुष्टों के द्वारा को हुई विघ्न-बाधाएं क्या कर सकती हैं ? अर्थात्-कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकतीं ॥ १९९ ॥
इस प्रकार उपासकाध्यमन में बारिषेण राजकुमार का दीक्षा के लिए
प्रस्थान वाला यह तेरहवां कल्प समास हुआ । इसके बाद वारिषेण मनिराज के हृदय में यह परोपकार वृद्धि उत्पन्न हुई। अपने प्रिय जन को धर्म में स्थापित करना चाहिए तथा जैसे औपधि का उपयोग रोगी को उत्तरकाल में कल्याणकारक होता है वैसे ही धर्म-पालन की इच्छा न रखते हुए प्राणी के लिए निपुण पुरुषों से किया जा रहा धर्म-संबंध भी उत्तरकाल में मोक्ष के लिए होता है। इसलिए जब उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की तब पुष्पवती नाम की मनोज्ञ पत्नीवाले 'शाण्डिल्यायन' राजमन्त्री के पुत्र ऐसे पुष्पदन्त के घर जाकर उसे अपने साथ लिया, जो कि वारिषेण राजकुमार
१. अवलोक्य । २. प्रहरन्तः पुरुषाः। ३. त्वरितं । ४. चौरात्। ५. प्रतिज्ञानन्तरं । ६-७. प्रतियत्ने षष्ठी।
पञ्जिकायां तु आत्महिलस्प प्रतियत्ने कृन् इति । ८. कथयित्वा । ९. चूचित्य । १०. जावात्मनाम् । ११. उद्वसः । १२, अगरकरमौषधम् । १३. वैद्यप्रयोगः । १४. आयतिः फलमुत्तर ।