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षष्ठ आश्वासः
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'मोदय, विधुरबालव संसारसुनसरोजोसा रनोहारायमाणचरण" वारिण, पर्याप्तमत्रावस्थानन । प्रकामशक". लितकुसुभास्त्ररसरहस्य वयस्य', इदानी बयार्षनिवावनिमनोमुनिरस्मीति चाषषाय विशुबहृदयौ द्वापि तो चेलिनीमहादेवीमभिनन्धोपसम्म च गुरुपादोपशल्य निःशल्यायो साधु तपश्वक्रतुः । भवति चात्र लोकः--
सुदतीसङ्गमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् । वारिषणः कृतत्राणः स्थापयामरस संयमे ॥२०५|| इत्युपासफाष्पयने स्थितिकारकीतनो नाम चतुर्वशः फल्पः ।
त्यचित्यालमेनिस्तपोभिविविधात्मकः । पूजामहा जायच कुर्यान्मार्गप्रभावनम् ॥२०६।। शाने तपसि पूजायो यतीनां महत्वसूयते । ५ स्वर्गापवर्गभूलतमीन में सस्याप्यसूयते" ॥२०७॥ समयश्चित्तपित्तास्यामिहापासिनभासक:१२ समर्थपिनसविताम्मा स्वस्यामुत्र म भासफः ।।२०८॥
'कामदेव के दर्द को विशेष रूप से रोकने वाले और काष्ट अवस्था में बन्धु-सरीखे एवं सांसारिक सुखरूपी कमल को नष्ट करने में हिम-(बर्फ) सरीखे चरित्रशाली ऐसे हे बारिषेण ! यहाँ ठहरने से कोई लाभ नहीं । 'कामदेव के रस के गूढस्वरूप को विशेष रूप से खण्डित करने वाले मित्र ! इस समय मैं वास्तविक वैराग्य का स्थान होकर भावमुनि हुआ हूँ। ऐसा निश्चय करके दोनों विशद्ध हृदय वाले मित्रों ने चेलिनो महादेवी का अभिनन्दन करके गुरु के चरणकमलों के समोग प्राप्त होकर निःशल्य अभिप्राय वाले होकर अच्छी तरह उप तपश्चर्या की।
इस विषय में एक दलोक है, उसका अभिप्राय यह है
वारिषेण ऋषि ने पुष्पदन्त नामक तपस्वी को, जो कि सुदती नाम की प्रिया के साथ संगम के लिए लालायित हो रहा था, रक्षा की और उसे चारित्र में स्थापित किया ।। २०५५
इस प्रकार उपासकाध्ययन में स्थितिकरण का कथन करने वाला चौदहवो कल्प समास हुआ। [ अब सम्यक्त्व के प्रभावना अङ्ग का निरूपण करते हैं-]
अनेक प्रकार के जिनबिम्ब व जिनमन्दिरों की स्थापना के द्वारा, अनेक प्रकार के व्याकरण, काव्य, कोष, न्याय व धर्मशास्त्रों के ज्ञान के द्वारा, नाना प्रधार की तपश्चर्याओं (अनशन-आदि बारह प्रकार के तपों) द्वारा एवं नाना प्रकार की महाध्वज-आदि पूजाओं (नित्यपूजा, अध्यातिपूजा, इन्द्रमहापूजा व महामहपूजाआदि ) द्वारा जैनशासन को प्रभावना करनी चाहिए ।। २०६॥ जो विवेक-शून्य मानव साधु महापुरूपों के सम्यग्ज्ञान, तप व पूजा से ईया-द्वेष करता है, अर्थात्-जो मुर्ख, साघुओं के ज्ञान, तप व उपासना को देखकर उनके गुणों से द्रोह करता है, निस्सन्देह उससे स्वर्गलक्ष्मी व मोक्षलक्ष्मी भी ईर्ष्या करती है। अर्थात्-उसे स्वर्गश्री व मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ २०७ ।। जो दिवेको मानव विशुद्ध चित्तवृत्ति ( अभिमान, ईया व अनिष्ट चिन्तवन-आदि दोषों से रहित ममात्ति) या शास्त्रज्ञान और धन (घन-धान्य-आदि के दान) से समर्थ होने पर भी शासन-दीपक ( जैनधर्म को प्रभावना करने वाला ) नहीं है, वह विशुद्ध मनोवृत्ति या
१. दर्प। २. कन्नै सति । ३-४. विनाओं हिममिव चारित्रं यस्य । ५. खण्डित । ६. मित्र । ३. प्राप्य । ८. समीर्ष ।
९. अलिमाभिः। १०. स्वर्गापवर्गविषये भवतीति नः। ११. अक्षनां करोति । १२. न शासनदीपको यः भवति । १३. आत्मनः परलोके स उद्योतको न भवति ।